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एक महीने में सालों की यादें दे गई यह सीरीज, नहीं भुलाया जाएगा नए इंडिया का नया जज्बा


19 दिसंबर 2020 से 19 जनवरी 2021 तक यूं तो 31 दिन होते हैं लेकिन भारतीय क्रिकेट इतने से वक्फे में 180 डिग्री घूम गया। ऐडिलेड में गुलाबी गेंद से टीम के प्रदर्शन पर सभी प्रशंसक, मीडिया और विश्लेषक लाल थे। और जब गेंद लाल हुई तो चेहरे पर गुलाबी रंगत छाने लगी। बॉक्सिंग डे पर टीम ने ऐसा पंच मारा कि कंगारुओं को समझ ही नहीं आया कि आखिर हुआ क्या। सिडनी में मुकाबला पंजे में था लेकिन ऑस्ट्रेलिया हार गई टीम इंडिया के जज्बे और जुनून से। भारतीय खिलाड़ियों के समर्पण ने मुकाबला ड्रॉ करवाया। ऐसा ड्रॉ जो किसी जीत से कम नहीं। स्कोरकार्ड पर ड्रॉ लिखा होगा लेकिन किसी भी भारतीय क्रिकेट दीवाने से पूछिए तो वह बताएगा कि उस ड्रॉ की क्या अहमियत थी।
तीन मुकाबलों के बाद हम पहुंचे ब्रिसबेन। जिसे ऑस्ट्रेलिया टीम और मीडिया किला कहता है। और यूं ही नहीं कहता। आंकड़े तस्दीक करते हैं। किला जिस पर कोई विदेशी टीम 1988 के बाद से नहीं जीती। ऑस्ट्रेलिया का फेवरिट हंटिंग ग्राउंड। उस पर तुर्रा यह कि भारतीय टीम ने छह में से पांच मैच गंवाए थे। और जीत उसे नसीब नहीं हुई थी। लेकिन कहते हैं किस्मत बदल लेते हैं जिनके हौसलों में जान होती है। वैसा ही किया टीम ने।

चौथी पारी, पांचवां दिन, 328 का लक्ष्य। जोश हेजलवुड, पैट कमिंस, नाथन लायन और मिशेल स्टार्क की गेंदबाजी। विकेट क्या करेगी नहीं पता। दरारें क्या खेल दिखाएंगी। मौसम कैसा होगा, नहीं पता। और सही मायनों में भारत ने इसकी परवाह भी नहीं की। पुजारा वैसे ही खेले जैसे वह खेलते हैं। गेंद हेलमेट पर लगी, उंगली पर लगी, छाती को निशाना बनाकर फेंकी गई। लेकिन पुजारा नहीं डिगे तो नहीं डिगे। और जब तक रहे ऑस्ट्रेलिया की जीत की उम्मीदों को तो धूमिल करते रहे। आलोचक कह सकते हैं कि जरूरत से ज्यादा डिफेंसिव हैं। लेकिन रहाणे ने भी उनके जुझारूपन को माना। गेंदबाज को थकाना और दूसरी ओर खुलकर खेलने का कॉन्फिडेंस देना पुजारा के खेल का हिस्सा हैं।
और गिल साब ने तो दिल जीत लिया। रोहित जरूर सस्ते में गए लेकिन शुभमन गिल ने दिखाया कि वह किस मिट्टी के बने हैं। उम्र कम है लेकिन इरादे मजबूत। 91 रन बनाए। शतक से चूके लेकिन जता दिया कि न तो छोटी गेंद से डरते हैं और न ही कमजोर गेंद को बख्शते हैं। पुल से लेकर ड्राइव तक। कट से लेकर फ्लिक तक हर कैमरे में कैद हुआ। हमेशा के लिए याद बन गया। अंडर-19 वर्ल्ड कप में पहली झलक देखी थी तब भी आकर्षक लगे थे और आज और भी ज्यादा।
और फिर ऋषभ पंत। शॉट सिलेक्शन पर सवाल, किस्मत का साथ और तमाम अगर-मगर लेकिन पंत जब तक क्रीज पर हैं तो फिर कोई भी टारगेट दूर नहीं। चाहे फॉर्मेट कोई भी हो। आज भी सबका मेल रहा। किस्मत, साहस, हिम्मत और मेहनत। सब साथ चले। पर कोशिश पंत की थी। तभी तो पड़ाव पार लगा।
ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ उसी की मेजबानी में मिली इस शानदार सीरीज जीत के बाद भारतीय टीम के खिलाड़ी और सपॉर्ट स्टाफ ब्रिसबेन में तिरंगा फहराते नजर आए। जिस भी भारतीय ने भी इस दृश्य को देखा, उसका सीना भी गर्व से चौड़ा हो गया। आप भी देखिए जश्न की ये कमाल की तस्वीरें..
गाबा में टीम इंडिया को जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाने वाले विकेटकीपर बल्लेबाज ऋषभ पंत हाथों में बॉर्डर-गावसकर ट्रोफी थामे नजर आए।
आइसिंग ऑन द केक रहे वॉशिंगटन सुंदर और शार्दुल ठाकुर। पहली पारी में जब कंगारू चढ़ बैठे थे तो दोनों ने जीवटता दिखाई। न तो सुंदर ने दिखाया कि वह अपना पहला टेस्ट मैच खेल रहे हैं और न ठाकुर ने कोई कमजोरी दिखाई। दोनों पहली पसंद नहीं थे। किस्मत उन्हें यहां ले आई थी। लेकिन किस्मत से मिले मौके को उन्होंने अपनी मेहनत से संवारा। 123 रन जोड़े। हाफ सेंचुरी बनाई और तीन-तीन विकेट लिए। कहते हैं न जब किस्मत दरवाजे खटखटाए तो उसे खोना नहीं चाहिए। इन्होंने नहीं खोया। किसी ने नहीं खोया।
आखिरी टेस्ट में गेंदबाजी आक्रमण नया। बिलकुल नया। और ऑस्ट्रेलिया को स्वाद भी नया चखाया। जिसकी उन्हें आदत नहीं है। सही मायनों में पुराने भारतीय फैंस को भी नहीं। उन्होंने ऑस्ट्रेलिया को कभी ऐसा पस्त नहीं देखा। आदत ही नहीं रही। हमने धावा बोलकर खेलने वाली ऑस्ट्रेलिया देखी है। पर यह नई इंडिया है। इस बार धावा हमने बोला। और बोला ही नहीं ठोका भी। 31 दिनों में मिसिंग इलेवन बन गई। कोहली से लेकर बुमराह, अश्विन, जडेजा, राहुल, यादव, शमी और भी कई खिलाड़ी। लेकिन भानुमती के पिटारे से खिलाड़ी निकलते रहे। बिलकुल तैयार। पहलवान नए थे लेकिन धुरंधर को उसी के अखाड़े में धोबी पछाड़ देकर आए।
याद कीजिए सिराज की वह तस्वीर जो राष्ट्रगान बजते समय आंखों से बहते आंसुओं के जरिए नजर में आई। पिता को याद करते हुए। ऑटो-ड्राइवर पिता चाहते थे कि बेटा टेस्ट क्रिकेटर बने। और आज जब बेटा बन रहा था, तो वही पिता दुनिया से रुखसत हो चुका था। दर्द यह कि बेटा उसे आखिरी वक्त में देख भी नहीं पाया। पर पिता ने देखा होगा अपने बेटे को हाथ में लाल गेंद लिए, जर्सी पर इंडिया लिखे दौड़ते हुए… और वहीं से कहा होगा… शाबाश…
और फिर, बात अजिंक्य रहाणे की। राहुल द्रविड़ स्कूल ऑफ क्रिकेट से निकले टिपिकल खिलाड़ी। मुंबई की क्रिकेट नर्सरी से पला-बढ़ा। चेहरे पर सौम्यता और दिमाग शांत। कोई हलचल नहीं। बस अपना काम सलीके से करते जाना। बल्ले से शतक लगाकर टीम को संभालना हो या गेंदबाजी आक्रमण में बदलाव करना। फील्डिंग सेट करनी हो या फिर बैटिंग ऑर्डर में तब्दीली। रहाणे ने सब कुछ शांत होकर किया। नतीजा सामने है… भारत लगातार दूसरी बार ऑस्ट्रेलिया में टेस्ट सीरीज जीता है। यह जवाब है कि पिछली बार स्मिथ, वॉर्नर के बिना ऑस्ट्रेलिया तुक्के में नहीं हारा था। हमने हराया था। इस बार हमारे कुछ खिलाड़ी नहीं थे। लेकिन टीम पूरी थी। टीमवर्क पूरा था।
टीमें बैंच स्ट्रैंथ से बनती-बिगड़ती हैं। वेस्टइंडीज से लेकर ऑस्ट्रेलिया ने इसी बैंच स्ट्रैंथ के दम पर क्रिकेट की दुनिया पर राज किया। उम्मीद की जानी चाहिए कि 31 दिनों में भारतीय क्रिकेट ने जो दम दिखाया है वह जारी रहेगा और भारतीय फैंस को ऐसे कई मुकाम मिलेंगे।
2001 कोलकाता याद कीजिए, 2008 पर्थ याद कीजिए, और फिर इस मैच को उसी लिस्ट में शामिल कीजिए। उन दोनों मैच के पीछे की कहानी है। किस्से हैं, किंवदंतियां हैं, अब इसकी भी होंगी। आप इसके किस्सों पर आने वाले लंबे समय तक चर्चा करेंगे। गिल की पारी, सिराज की बोलिंग, ठाकुर-सुंदर के ऑलराउंड खेल। विराट के बिना रहाणे की कप्तानी। पंत का मैच-विनिंग खेल। सब… सब इतनी आसानी से जेहन से मिटने वाला नहीं है। आंकड़े शायद थोड़े से ऊपर-नीचे हो जाएं। पूरा स्कोर याद न रहे। लेकिन याद रहेगा ब्रिसबेन में लहराता तिरंगा। टीम इंडिया के सफाए की बात करने वाले कॉमेंट और याद रहेगी जुबां से नहीं खेल से उसका जवाब देने वाली यंग ब्रिगेड…सीने के फ्रेम में दर्ज हो गई है इस जीत की तस्वीर.. 31 दिनों में यादों का खजाना थमा गई है यह सीरीज…