वराह पुराण में वर्णित, एक समय पृथ्वी देवी ने श्री हरि विष्णु जी से पूछा हे प्रभो! प्रारब्ध कर्म को भोगते हुए मनुष्य एकनिष्ठ भक्ति किस प्रकार प्राप्त कर सकता है। इसके उत्तर में नारायण भगवान बोले, ‘‘प्रारब्ध को भोगता हुआ जो मनुष्य सदा श्री गीता जी के अभ्यास में लगा रहता है, वही इस लोक में मुक्त और सुखी होता है तथा कर्मों में लिपायमान नहीं होता। श्री गीता जी का ध्यान करने से महापापी आदि भी उसे स्पर्श नहीं करते। जहां श्री गीता जी को प्रतिष्ठित किया जाता है तथा उसका पाठ होता है वहां प्रयागादि सर्वतीर्थ निवास करते हैं। जहां श्री गीता जी प्रतिष्ठित हैं वहां सभी देवों, ऋषियों, योगियों, नारद, ध्रुव आदि पार्षदों सहित भगवान श्री कृष्ण उपस्थित रहते हैं।’’
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं ‘‘गीताश्रयेऽहं तिष्ठामि गीता में चोत्तमं गृहं। गीता ज्ञान मुपाश्रित्य त्रींल्लोकान्पाल्याम्यहम्।’’
मैं श्री गीता जी के आश्रय में रहता हूं, श्री गीता जी मेरा उत्तम घर है और श्री गीता ज्ञान का आश्रय करके मैं तीनों लोकों का पालन करता हूं। भगवान ने स्पष्ट किया कि मनुष्य कर्मों के परित्याग से नहीं अपितु कर्मफल के परित्याग से ही कर्म बंधन से मुक्त हो सकता है क्योंकि किसी भी देहधारी के लिए कर्मों के स्वरूप से त्याग संभव नहीं है। भगवान ने भगवद् गीता में बताया कि ॐ तत् सत् ये तीन नाम परमात्मा के हैं।’
परम अक्षर ब्रह्म है, जीव के स्वभाव को ही अध्यात्म नाम से जाना जाता है।
और वह परम अक्षर ब्रह्म ॐ है। ‘‘ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म।’’
भगवान के निराकार और साकार रूप में कोई भेद नहीं लेकिन साकार रूप के दर्शन अनन्य भक्ति के द्वारा ही संभव है जिसका वर्णन हमें पुराणों में प्राप्त होता है। भगवान श्री कृष्ण ने अपने विश्व रूप के जो दर्शन अर्जुन को कराए, वह सम्पूर्ण वेदों, उपनिषदों पुराणों तथा समस्त धर्म शास्त्रों का सार है कि सम्पूर्ण लोक भगवान के विश्व रूप में स्थित है। यह अजर, अमर, अविनाशी, नित्य, सर्वव्यापी आत्मा भगवान का सनातन अंश है। माया के तीन गुणों के प्रभाव से जीव स्वयं को परमात्मा से अलग मानता है। लेकिन श्री गीता जी के प्रभाव से जीव तीनों गुणों (सत्व, रज, तम) से मुक्त होकर अपने शाश्वत स्वरूप को जान कर तत्काल भगवद् रूप हो जाता है। कलिकाल में भगवान ने अपने प्रिय भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए परम पवित्र अति गुह्यतम ज्ञान अर्जुन के माध्यम से अर्जुन को दिया।
जहां योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण हैं, जहां गांडीव धनुर्धारी अर्जुन हैं, वहीं श्री, विजय और नीति है ऐसा समस्त शास्त्रों का कथन है।