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व्यंग

विलासिता का दुख

• अरविन्द सारस्वत जब कभी भी किसी विकसित देश में उपलब्ध आम जनसुविधओं के बारे में सुनता या पढ़ता हूं तो हृदय से हूक उठ जाती है। अब इसका अर्थ आप यह कदापि ग्रहण न करें कि मैं उनकी सुविधा-सम्पन्नता से जल उठता हूं। बिना किसी आत्म प्रवंचना के कहूं तो मुझे यह उनकी विपन्नता ही नजर आती है। सुख-सुविधाओं …

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जय श्री अद‌्‌भुत चापलूस चालीसा

• अशोक गौतम भक्तो! सरकारी नौकरी में रहते आज इतने अधिक खतरे बढ़ गए हैं कि अपने को तीस मार खां कहने वाले भी कुर्सी पर बैठने से पहले सौ बार भगवान का नाम लेते हैं। क्या पता कब जनता से कुछ लेते क्राइम ब्रांच वालों के हत्थे चढ़ जाएं। क्या पता कब जैसे तबादला हो जाए! क्या पता कब …

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आत्मा की आवाज़

• डॉ. प्रेम जनमेजय आजकल आत्मा की आवाज़ की जैसे सेल लगी हुई है। जिसे देखो वो ही आत्मा की आवाज़ सुनाने को उधार खाए बैठा है। आप न भी सुनना चाहें, तो जैसे क्रेडिट कार्ड, बैकों के उधारकर्त्ता, मोबाईल कंपनियों के विक्रेता अपनी कोयल-से मधुर स्वर में आपको अपनी आवाज़ सुनाने को उधार खाए बैठे होते हैं वैसे ही आत्मा …

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