एक बार स्वामी रामकृष्ण से एक साधक ने पूछा, ‘‘मैं हमेशा भगवान का नाम लेता रहता हूं, भजन-कीर्तन करता हूं, ध्यान लगाता हूं, फिर भी मेरे मन में कुविचार क्यों उठते हैं?’’
यह सुनकर स्वामी जी मुस्कुराए। उन्होंने साधक को समझाने के लिए एक किस्सा सुनाया। एक आदमी ने एक कुत्ता पाला हुआ था और वह उससे बहुत प्यार करता था। उसके साथ ही मग्न रहता था। उसे गोद में लेता, उसके मुंह से मुंह लगाकर बैठा रहता था। यहां तक कि खाते-पीते, सोते-जागते या बाहर जाते समय भी कुत्ता उसके साथ ही रहता था।
उसकी इस हरकत को देखकर एक दिन एक बुजुर्ग ने उससे कहा कि, एक कुत्ते से इतना लगाव ठीक नहीं। आखिरकार है तो पशु ही। क्या पता कब किसी दिन कोई अनहोनी कर बैठे। तुम्हें नुकसान पहुंचा दे या काट ले।
यह बात उस आदमी के दिमाग में बैठ गई। उसने तुरन्त कुत्ते से दूर रहने की ठान ली लेकिन वह कुत्ता इस बात को भला कैसे समझे? वह तो मालिक को देखते ही दौड़कर उसकी गोद में आ जाता था। मुंह चाटने की कोशिश करता था। मालिक उसे मार-मारकर भगा भी देता लेकिन कुत्ता अपनी आदत नहीं छोड़ता था। बहुत दिनों की कठिन मेहनत और कुत्ते को दुत्कारने के बाद कुत्ते की यह आदत छूटी।
यह कथा सुनाकर स्वामी जी ने साधक से कहा, ‘‘तुम भी वास्तव में ऐसे ही हो। जिन सांसारिक भोग-विलास में आसक्ति की आदतों को तुमने इतने लंबे समय से पालकर छाती से लगा रखा है वे भला तुम्हें इतनी आसानी से कैसे छोड़ सकती हैं? पहले तुम उनसे लाड़-प्यार करना बंद करो। उन्हें निर्दयी, निर्मोही होकर अपने से दूर करो। तब ही उनसे पूरी तरह से छुटकारा पा सकोगे।
जैसे-जैसे बुरी आदतों का दमन करोगे, मन की एकाग्रता बढ़ती जाएगी और चित्त में अपने आप धर्म विराजता जाएगा।’’