दान तन, मन, धन से होता है, लेकिन यह जरूरी नहीं कि धन होने से दान हो। अगर आपके द्वारा दिल से किसी के प्रति सहानुभूति दी जाती है या शारीरिक मदद दी जाती है तो उसे भी दान माना जाता है। दान देने की प्रक्रिया उस मनुष्य में ज्यादा होगी जिसका दिल मक्खन से भी नर्म हो। कारण कि मक्खन को गर्मी चाहिए तब वह पिघलेगा लेकिन अच्छे इंसान का दिल दूसरों का दुख देखकर पिघल जाएगा इसलिए जिसका दिल मक्खन के समान नर्म है उसे संत के तुल्य माना जाता है।
दानवीरों में महाभारत के समय में हुए ‘महारथी कर्ण’ का नाम सबसे पहले आता है जिन्होंने हमेशा उनके पास जो भी आया उसकी जरूरत के अनुसार दान दिया। कहा जाता है कि अर्जुन के दिल में भी यह बात आई कि मेरे बड़े भाई युधिष्ठिर तो सत्यवादी के साथ-साथ दानवीर भी हैं फिर ‘कर्ण’ को मेरे भाई युधिष्ठिर से बड़ा दानवीर क्यों मानते हैं? तब भगवान कृष्ण ने उनकी शंका दूर करने के लिए, एक दिन बारिश के समय में ब्राह्मण का भेष बनाया एवं दोनों युधिष्ठिर के पास जा पहुंचे एवं उनसे कहा कि हमें हवन के लिए सूखी चंदन की लकड़ी चाहिए। युधिष्ठिर जी ने कहा कि ब्राह्मण देवता बारिश की वजह से सभी लकडिय़ां गीली हो गई हैं इसलिए मैं सूखी चंदन की लकड़ी देने में असमर्थ हूं। फिर दोनों ‘कर्ण’ के पास गए। ‘कर्ण’ ने उनसे कहा, पहले आप भोजन कर लीजिए, सूखी चंदन की लकड़ी की व्यवस्था हो जाएगी। भोजन करने के बाद ‘कर्ण’ ने अपने मकान में लगे दरवाजे एवं अपने पलंग को तुड़वाकर उनको लकड़ी दे दी जोकि चंदन की लकड़ी के थे एवं देने से पहले अपने तरकश से बाण छोड़ कर गंगाजी का पानी बहाकर पूरी लकड़ी को धुलवाया और फिर तरकश से दूसरा बाण छोड़कर गर्मी पैदा करके सभी लकडिय़ों को सुखाकर भी दिया। तब भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि अब आप देख सकते हैं कि श्रेष्ठ दानवीर कौन है।
परोपकार के कार्य हमें आनंद प्रदान करते हैं और जीवनभर यही हमारा लक्ष्य होना चाहिए। प्रेम में अथाह शक्ति छिपी होती है। यह हमारे मन मस्तिष्क से दूषित विचारों को निकालकर उसे दैवीय भावों से भर देती है। यदि एक गरीब आदमी अपनी कमाई का 10 प्रतिशत दान करता है तो उसके दान का महत्व एक धनी आदमी के द्वारा अपनी कमाई का 10 प्रतिशत दान से अधिक महत्व रखता है क्योंकि एक गरीब आदमी अपनी कमाई का 10 प्रतिशत अपने दैनिक खर्च से काटकर देता है जबकि एक धनी आदमी अपने विलासी जीवन के साधन में से। प्यार में ऐसी शक्ति है कि मन के सारे मैल धोकर एक पवित्र भाव से भर देता है। संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरितमानस में लिखते हैं, ‘‘दया धर्म का मूल है, नरक मूल अभिमान। तुलसी दया न छोडि़ए, जब लग घट में प्राण।’’