अपनी सोच को वही व्यक्ति आकार दे सकता है, जिसकी सोच परिपक्व होती है। किसी भी कार्य को उचित समय पर, उचित ढंग से करने की कला को नीति कहते हैं। किसी भी कार्य के लिए नीतियुक्त निर्णय अभीष्ट परिणाम प्राप्त करने में सहायक होता है। हमारे धर्मग्रंथ नीति संबंधी सद् उपदेशों से हमारे नित्य व्यवहार एवं कुशल व्यवहार के लिए नीतियुक्त सिद्धांतों से हमारा मार्गदर्शन करते हैं। हमें वेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों से धर्म एवं नीति का अद्भुत समन्वय प्राप्त होता है। इन ग्रंथों में प्रतिपादित नीतियुक्त सिद्धांत, लोक व्यवहार में इन्हें कैसे प्रयोग किया जाए, पथ-प्रदर्शक का कार्य करते हैं।
भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन को जो धर्म और नीति से युक्त उपदेश दिया वह हर देश, काल, स्थान की मनुष्य जाति के लिए उपयोगी है। इसमें आत्मा के शाश्वत स्वरूप के ज्ञान के साथ निष्काम कर्म योग, आत्मसंयम योग, भक्ति योग, मोक्ष संन्यास योग के ज्ञान का अद्भुत संगम और समन्वय है। यह ज्ञान की पराकाष्ठा है तथा धर्म एवं नीति के समन्वययुक्त ज्ञान की बेजोड़ उदाहरण है। नीति शब्द का प्रयोग जहां धर्म के नीतिगत ज्ञान के संबंध में होता है, वहीं नीति शब्द का सर्वाधिक प्रयोग राजनीति शब्द के साथ होता है।
राजधर्म के विषय में हस्तिनापुर राज्य के महामंत्री विदुर द्वारा दी गई विदुर-नीति सर्वाधिक प्रसिद्ध है। विदुर जी के अनुसार, एक राजा का कर्तव्य होता है कि वह व्यक्तिगत भावनाओं से ऊपर उठकर राजधर्म का पालन करे। मनुष्य के कर्तव्य निर्धारण में नीति का उपयोग सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
भगवान श्रीकृष्ण जी की धर्मयुक्त नीति यही थी कि धर्म की स्थापना के लिए दुष्टों का विनाश तथा न्याय, धर्म एवं नीतियुक्त समाज की स्थापना। दुष्ट प्रवृत्ति वाले मनुष्यों को समाज में ऐसी व्यवस्था स्वीकार्य नहीं होती। ऐसे अपकार करने वाले क्रूरकर्मी मनुष्य केवल जगत् के अहित के विषय में ही सोचते हैं। मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करके, भ्रष्ट आचरण को धारण करके, अहंकारयुक्त होकर संसार में विचरण करते हैं।
तुलसीदास जी रामचरित मानस में राजधर्म के विषय में लिखते हैं : ‘‘राजधर्म सरबस एतनोई। जिमि मन माहं मनोरथ गोई।।’’
राजधर्म का सार इतना ही है कि जैसे मन में सभी मनोरथ छिपे रहते हैं, वैसे ही राजधर्म में लोक-कल्याण की सभी उत्कृष्ट एवं पवित्र भावनाएं छिपी रहनी चाहिएं। तभी राजधर्म स्वस्थ लोकतंत्र की आधारशिला बन सकता है।
नीति के बिना राज्य चलाने का अभिप्राय है- बुद्धि का उपयोग किए बगैर विद्या को ग्रहण करना। नीतिविहीन राज्य संसार के लोगों के लिए विनाशकारी होता है। विश्वशांति के लिए आवश्यक है कि राजधर्म में लोक-कल्याण अंतर्निहित होना चाहिए: ‘‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।’’
परोपकार के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को दुख देने के समान कोई अधर्म कार्य नहीं है।
भगवद्गीता में भगवान के नीतियुक्त वचनों से न केवल अर्जुन का मोह और अज्ञान दूर हुआ अपितु वह अपने कर्तव्य मार्ग की ओर प्रशस्त हुआ। भगवान श्रीकृष्ण जी के श्री गीता जी में नीतियुक्त वचन सम्पूर्ण प्राणीमात्र के लिए कल्याणकारी हैं।
‘‘यत्र योगेश्वर : कृष्णा यत्र पार्थो धनुर्धर:। तत्र श्रीर्विजयो भूतिध्र्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।’’
अर्थात्: जहां योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण हैं और जहां गाण्डीव धनुर्धारी अर्जुन है, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है।