स्वामी नारदानंद जी महाराज सरस्वती संत शिरोमणि गोस्वामी श्री तुलसीदास जी लिखते हैं : पर उपकार वचन मन काया। संत सहज स्वभाव खग राया।।
स्वभाव से ही परोपकार करते रहना, संतों का प्रमुख लक्षण है। इतना ही नहीं और देखिए : भूर्ज तरू सम संत कृपाला। परहित निति सह बिपति विशाला।।
वैसे परोपकार करना सरल है, जब तक अपने को कोई कष्ट न हो, किन्तु सच्चा संत वह है जो परोपकार के लिए नित्य निरंतर बड़ी-बड़ी विपत्तियां प्रसन्नता से सहन करता हो।
संत का जीवन बलिदान का जीवन है। संत के हृदय में परमात्मा निवास करता है। अत: बाहरी कष्ट उसके आंतरिक सुख बन जाते हैं, वह कष्टों को तपस्या समझकर मुस्कुराता रहता है।
प्रीति-नीति हृदय को पुष्ट करने वाले तथा सद्गुणों से हृदय को विभूषित करने वाले सभी लक्षण प्रीति के अंतर्गत आते हैं। आचरण को दिव्य बनाने वाले सभी लक्षण नीति के अंतर्गत आते हैं। सभी से मर्यादानुसार प्रेम करो। इसमें नीति प्रति दोनों का समन्वय है। निष्काम प्रेम हृदय को पवित्र कर देता है और निष्काम सेवा आचरण को दिव्य एवं पवित्र बना देती है।
अपने उपायों का विश्लेषण करते हुए इन लक्षणों का जीवन में उपयोग विवेक जागृत होने पर संभव है। विवेक प्राप्ति सत्संग से, सत्संग की प्राप्ति भगवान की कृपा से तथा भगवान की कृपा निश्छल प्रेम से एवं प्रेम भक्ति से प्राप्त होता है।
सद्गुरु भगवान के साकार स्वरूप हैं। अत: उनकी कृपा संपादन करना परम आवश्यक है। मन, वचन, कर्म से श्रद्धापूर्वक आज्ञा पालन करने से सद्गुरुदेव प्रसन्न हो जाते हैं, अत: भगवान का कृपापात्र बनने के लिए सद्गुरु की आज्ञा का पालन करते रहना चाहिए। ईश्वर कृपा, गुरुकृपा व आत्मकृपा की त्रिवेणी में स्नान करना उत्तम स्नान करना है। इस दिव्य स्नान के बाद ही दिव्य गुणों एवं संतों के लक्षणों का सूक्ष्म ज्ञान होना प्रारंभ हो जाता है।
पुष्प एवं कंटकों की भांति प्रकृति संतों और असंतों का निर्माण करती है। संत दोनों को ‘सिया राममय सब जग जानी’ की भावना से प्रणाम करते हैं। असंत दोनों से ही द्वेष करते हैं। फलत: संतों के शब्दों की र्कीत कौमुदी आने वाले युगों तक चमकती रहती है और लोग उससे अपना मार्ग प्रशस्त करते रहते हैं। संत मानव के लिए नहीं प्राणीमात्र के कल्याण के लिए शरीर धारण कर भूतल पर निवास करते हैं।
समाज संतों को उत्तम स्थान प्रदान करता है तथा संत समाज को विश्व में उत्तम स्थान में प्रतिष्ठित करते हैं। विश्व को कुटुम्ब मानकर वे सबसे प्यार करते हैं। समाज के हृदय पर उनका शासन होता है और आचार्य संत समाज के करणधार बन जाते हैं। समाज की शोभा इन्हीं संतों से होती है।
संत के लक्षणों को धारण करने में सभी का अधिकार है। किन्तु व्यवहार में शास्त्र की मर्यादा पालन करना सबके लिए हितकर है। ऐसा ऋषियों ने कहा है।
रामायण के अनुसार, चार प्रकार की नीति का पालन कहां पर किस परिस्थिति में और किस प्रकार से करना चाहिए, राम के चरित्र से सबको शिक्षा लेनी चाहिए। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने अपने परिवार के साथ कैसा व्यवहार किया था और प्रजा के साथ किस प्रकार के व्यवहार द्वारा सब प्रकार से सुखी बनाया। मित्र और शत्रु के साथ कैसा व्यवहार किया, जिससे समाज चरित्र की रक्षा और विकास से लाभान्वित हुआ।
ऋषि-मुनियों को श्रद्धा, सेवा, दान तथा सम्मान के द्वारा समाज में अनुकरणीय आदर्श उपस्थित किया। धर्मरक्षक, प्रजापालक, भक्तवत्सल श्रीराम ने सम्पूर्ण प्राणियों के लिए कल्याणकारी चरित्र किए। समाज का शोषण करने वाले दुर्जनों का दमन और परोपकारी सज्जनों का रक्षण-पोषण किया। आपकी लीला के सभी पात्र अनुकरणीय हैं। उनके चरित्रों से भिन्न-भिन्न प्रकार की शिक्षा मिलती है। प्रत्येक पात्र में दिव्य गुणों की प्रतिभा चरित्र को सर्वांगपूर्ण करती है।
रामचंद्र जी का चरित्र सुंदर धागा है, जिसमें सद्गुण रूपी रत्न पिरोए हुए हैं। ऐसी सुंदर मणिमाला को ‘पहिरै सज्जन विमल उर शोभा अति अनुराग’ जिस माला की शोभा से अति अनुराग उत्पन्न होता है। रामचरित मानस में संतों के गुणों और असंतों के दोषों का वर्णन है जिनका उन्होंने उपयोग करने के लिए सम्पूर्ण मानव समाज को सचेत किया है।
दुर्जन प्रकृति के मनुष्य दूसरों के दोषों का दर्शन व संचय किया करते हैं और गुणों में दोष लगाते हैं। जो सज्जन प्रवृति के मनुष्य हैं वे गुण-दोष मिश्रित संसार के गुणों का संचय करते हैं और दोषों की उपेक्षा करते हैं। गोस्वामी जी का कथन है कि : ताते कछु गुण दोस बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने।।
संत-असंत मनुष्य की सभी जातियों में, देशों में, संप्रदायों में, गरीब, अमीरों में पढ़े-कुपढ़े समाज में, राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक वर्णों और आश्रमों में गृहस्थ और स्वामियों में दोनों प्रकार के तत्व पाए जाते हैं। सज्जनों को पहचान कर उनका सहयोग करें और दुर्जनों से सावधान रहें।