• डॉ. प्रेम जनमेजय
आजकल आत्मा की आवाज़ की जैसे सेल लगी हुई है। जिसे देखो वो ही आत्मा की आवाज़ सुनाने को उधार खाए बैठा है। आप न भी सुनना चाहें, तो जैसे क्रेडिट कार्ड, बैकों के उधारकर्त्ता, मोबाईल कंपनियों के विक्रेता अपनी कोयल-से मधुर स्वर में आपको अपनी आवाज़ सुनाने को उधार खाए बैठे होते हैं वैसे ही आत्मा की आवाज़ का धंधा चल रहा है। कोई भी धार्मिक चैनल खोल लीजिए, स्वयं अपनी आत्मा को सुला चुके ज्ञानीजन आपकी आत्मा को जगाने में लगे रहते हैं। आपकी आत्मा को जगाने में उनका क्या लाभ, प्यारे जिसकी आत्मा मर गई हो वो धरम-करम कहाँ करता है, धरम-करम तो जगी आत्मा वाला करता है और धरम-करम होता तभी तो धार्मिक-व्यवसाय फलेगा और फूलेगा। इसीलिए जैसे इस देश में भ्रष्टाचार के सरकारी दफतरों में विद्यमान् होने से वातावरण जीवंत और कर्मशील रहता है वैसे ही आत्मा के शरीर में जगे रहने से ’धर्म’ जीवंत और कर्मशील रहता है।
मैं संजय की तरह देख रहा हूँ (अब आप ये मत पूछिएगा कि तुम संजय हो तो इस राष्ट्र में धृतराष्ट्र कौन है, वरना लोगों को आप ही धृतराष्ट्र नज़र आएँगे) कुछ रिरिया रिरिया कर भीख माँगते स्वर चिल्ला रहे हैं, “अल्लाह के नाम पर, मौला के नाम पर, हे कोई श्रोता, हे कोई श्रोती जो मेरी आत्मा की आवाज़ सुन ले। सुन लो भैया बहुत छोटी-सी आवाज़ है, एक मिनिस्ट्री का सवाल है बाबा।”
मैंने उनसे पूछा, “क्या, आपको सुनाई देता है?”
उन्होंने मुझे घूरा जैसे अमेरिका ने इराक को घूरा हो और कहा, “मुझे बहरा समझा है, हमसे मजाक करता है? तेरा दिमाग ठीक है, वरना ढूँढूँ तेरे यहाँ भी हथियार। हमसे मजाक करना बहुत महँगा पड़ता है, प्यारे! कभी न करना मजाक, हमसे और किसी पुलिस वाले से। समझ गए न प्यारे जी” और मैं प्यारा बढ़ती हुई महँगाई के बावजूद महँगे मजाक से नहीं डरा और पूछ बैठा, “आपको आत्मा की आवाज़ सुनाई देती है?”
वे बोले, “पागल है क्या, मैं कोई नेता हूँ जो आलतू-फालतू आवाजें सुनता रहूँ।”
सच आजकल आत्मा की आवाज आलतू-फालतू ही हो गई है। कुछ के यहाँ आत्मा की आवाज़ पालतू हो गई है, जब चाहा भौंकवा दिया।
कबीर के समय में माया ठगिनी थी, आजकल आत्मा ठगिनी है। माया के मायाजाल को तो आप जान सकते हैं, आत्मा के आत्मजाल को देवता नहीं जान सके आप क्या चीज़ हैं। सुना गया है कि आजकल आत्मा की ठग विद्या को देखकर बनारस के ठगों ने अपनी दूकानों के शटर बंद कर लिए हैं। सुना गया है कि विदेशी संस्थागत निवेशक ऐसी आत्माओं को ऊँची तन्खवाहों पर भरती कर रहे हैं।
जैसे हम कपड़े बदलते हैं, आजकल जैसे हम अपनी आस्थाएँ बदलते हैं वैसे ही आत्मा शरीर बदलती है – कभी शासक दल का नेता होती है, कभी विरोधी दल की और कभी किसी बाहुबली के शरीर की।
सुअवसर देख उनकी आत्मा फुँकारने लगी।
मैंने कहा, “आप इस तरह क्यों फुँकार रहे हैं, देशसेवक?”
वे बोले, “हमारी आत्मा पर बोझ बढ़ गया है। इतने एम.पी. के साथ एलेक्शन जीते, मंत्री-संत्री बनने की तो बात दूर कौनो कमेटी तक में नहीं रखा। हमने देश सेवा के लिए लाखों रुपया खर्च किया है। अब हम आत्मा की आवाज़ नहीं सुनेंगे और सुनाएँगे तो खाएँगे क्या? लोग तो चुनाव के बाद दूध-मलाई खाएँ और हम महाराणा प्रताप बने घास की रोटियाँ? बहुत ना इन्साफ़ी है। माना हम महाराणा प्रताप के वंशज के हैं पर हमें चुनाव लड़ना होता है। हम जनता के प्रतिनिधि हैं। हम तो अपनी आत्मा की आवाज़ सुनाकर रहेंगे ैय्ये।”
मैंने पूछा, “किसी ने आपकी आत्मा की आवाज़ सुनी?”
वे बोले, “पगला गए हैं क्या? कोई सुन लेता तो मंत्रालय में न बैठे होते। यहाँ लोग ससुरे तीन एम.पी. लेकर दो-दो मंत्रालय हथियाए बैठे हैं और हम तीस लेकर घास की भीख माँग रहे हैं। हमने आपसे कह दिया न कि दूसरे तो देशसेवा के नाम पर दूध-मलाई खाएँ और हम पहले घास की रोटियाँ खाएँ, नहीं चलेगा।”
“आपको किसी ने भीख भी न दी तो?”
“तो उचित अवसर का इंतज़ार करेंगे। आत्मा की आवाज़ कभी मरती नहीं है। कभी न कभी तो सुननी पड़ती है भैया, वरना प्रजातंत्र कैसे चलेगा सरकार कैसे चलेगी?”
“तो अभी क्या करेंगे, आत्मा की आवाज़ का?”
“अभी सुला देंगे।”
आत्मा की आवाज़ कितनी सुविधाजनक हो गई है, जब चाहा जगा दिया जब चाहा सुला दिया जैसे घर की बूढ़ी अम्मा, जब चाहा मातृ-सेवा के नाम पर, दोस्तों को दिखाने के लिए ड्राईंग रूम में बिठा लिया और जब चाहा कोने में पटक दिया।
पाँच साल में एक बार आधा बार आत्मा की आवाज़ सुन लेना ही तो प्रजातंत्र है, दोस्तो।