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हकीकत या फसाना: इस बर्तन में बना भोजन कभी खत्म नहीं होता


धर्मराज युधिष्ठिर सत्यवादी, सदाचारी और धर्म के अवतार थे। महान से महान संकट पडऩे पर भी उन्होंने कभी धर्म का त्याग नहीं किया। देव इच्छा से महाराज युधिष्ठिर को द्यूत क्रीड़ा में अपना राज्य, धन-सम्पत्ति एवं समस्त सम्पदा गंवानी पड़ी। अंत में उन्हें बारह वर्षों का वनवास भी जुए में हारने के फलस्वरूप प्राप्त हुआ।
धर्मराज युधिष्ठिर अपने भाइयों एवं द्रौपदी के साथ वनवास के कठिन दुख को झेलने चल पड़े। उनके साथ ब्राह्मणों का एक दल भी चल पड़ा। उन ब्राह्मणों को समझाते हुए महाराज युधिष्ठिर ने कहा, ‘‘ब्राह्मणों! जुए में मेरा सब कुछ हरण हो गया है। फल-मूल पर ही हमारा जीवन निर्भर रहेगा। वन की इस यात्रा में बड़ा कष्ट होगा, अत: आप लोग हमारा साथ छोड़कर अपने-अपने स्थान को लौट जाएं।’’
ब्राह्मणों ने दृढ़ता से कहा, ‘‘महाराज! आप हमारे भरण-पोषण की चिंता न करें। अपने लिए हम स्वयं ही अन्न आदि की व्यवस्था कर लेंगे। हम सभी ब्राह्मण आपके कल्याण की कामना करेंगे और सुंदर कथा-प्रसंग सुनकर आपके मन को प्रसन्न रखेंगे।’’
महाराज युधिष्ठिर ब्राह्मणों के इस निश्चय और अपनी स्थिति को जान कर चिंतित हो गए। उन्होंने अपने पुरोहित धौम्य के पास जाकर प्रश्र किया, ‘‘प्रभो! किसी सत्पुरुष के लिए अपने अतिथियों का स्वागत-सत्कार करना परम कर्त्तव्य है। ऐसी परिस्थिति में जब हम स्वयं संकटग्रस्त हैं तो हमारे अतिथि-धर्म का निर्वाह कैसे हो सकेगा?’’
महाराज युधिष्ठिर को चिंतित देखकर धौम्य ने उन्हें भगवान सूर्य की उपासना का मार्ग बताया। उन्होंने कहा, ‘‘युधिष्ठिर! भगवान सूर्य ही नारायण के रूप में सम्पूर्ण सृष्टि के भरण-पोषण की व्यवस्था करते हैं। तुम्हें नित्य अष्टोत्तरशतनाम-जप के द्वारा उन भगवान सूर्य की उपासना करनी चाहिए। मुझे विश्वास है कि वह निश्चय ही तुम्हारे इस कष्ट का निवारण करेंगे।’’

महाराज युधिष्ठिर सूर्योपासना के कठिन नियमों का पालन करते हुए सूर्य, अर्यमा, भग, त्वष्टा, पूषा, रवि इत्यादि एक सौ आठ नामों के निरंतर जप के द्वारा नित्य भगवान सूर्य की उपासना करने लगे और भगवान सूर्य उनकी आराधना से प्रसन्न होकर उनके समक्ष प्रकट हुए। उनके मनोहर स्वरूप को देखकर महाराज युधिष्ठिर भाव-विभोर हो गए। उन्होंने स्तुति करते हुए कहा, ‘‘हे सूर्यदेव! आप सम्पूर्ण जगत के नेत्र तथा प्राणियों की आत्मा हैं। आप ही सारे संसार को धारण करते हैं। सारा संसार आपसे ही प्रकाश पाता है। आप इस संसार का बिना किसी स्वार्थ के पालन करते हैं। आपने मुझे जो दर्शन दिया है, इस कृपा के प्रति मैं हृदय से कृतज्ञ हूं।’’
भगवान सूर्य ने कहा, ‘‘धर्मराज! मैं तुम्हारी आराधना से परम प्रसन्न हूं। मैं तुम्हें बारह वर्षों तक अन्न देता रहूंगा।’’
ऐसा कह कर उन्होंने महाराज युधिष्ठिर को अपना अक्षय पात्र प्रदान किया। उस पात्र में बना भोजन अक्षय हो जाता था। भगवान सूर्य का वह अक्षय पात्र ताम्र की एक विचित्र बटलोई थी। उसकी विशेषता यह थी कि जब तक सती द्रौपदी भोजन नहीं कर लेती थी तब तक उसमें बना भोजन समाप्त नहीं होता था। इस प्रकार महाराज युधिष्ठिर को अपना अक्षय पात्र प्रदान करके भगवान सूर्य अंतर्ध्यान हो गए।