सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा कर रहे हैं और सभी ग्रहों को साथ लेकर यह सूर्य महासूर्य की परिक्रमा कर रहा है। सम्पूर्ण ब्रह्मांड में चक्र एवं परिक्रमा का बड़ा महत्व है। भारतीय धर्मों (हिंदू, जैन, बौद्ध आदि) में पवित्र स्थलों के चारों ओर श्रद्धाभाव से चलना परिक्रमा या प्रदक्षिणा कहलाता है। परिक्रमा से अभिप्राय है कि सामान्य स्थान या किसी व्यक्ति के चारों ओर उसके बाएं तरफ से घूमना। इसको प्रदक्षिणा करना भी कहते हैं, जो षोडशोपचार पूजा का एक अंग है। प्रदक्षिणा की प्रथा अति प्राचीन है। वैदिक काल से ही इसके द्वारा व्यक्ति, देवमूर्ति, पवित्र स्थानों को प्रभावित करने या सम्मान प्रदर्शन का कार्य समझा जाता रहा है। दुनिया के सभी धर्मों में परिक्रमा का प्रचलन हिंदू धर्म की देन है। काबा में भी परिक्रमा की जाती है तो बौद्ध गया में भी। हम सभी जानते हैं कि भगवान गणेश और कार्तिकेय ने भी परिक्रमा की थी। यह प्रचलन वहीं से आरंभ हुआ है ऐसा माना जाता है।
परिक्रमा मार्ग और दिशा : ‘प्रगतं दक्षिणमिति प्रदक्षिणं’ के अनुसार अपने दक्षिण भाग की ओर गति करना प्रदक्षिणा कहलाता है। प्रदक्षिणा करते समय व्यक्ति का दाहिना अंग देवता की ओर होता है। इसे परिक्रमा के नाम से प्राय: जाना जाता है। ‘शब्द कल्पद्रुम’ में कहा गया है कि देवता को उद्देश्य करके दक्षिणावर्त भ्रमण करना ही प्रदक्षिणा है।
प्रदक्षिणा का प्राथमिक कारण सूर्यदेव की दैनिक चाल से संबंधित है। जिस तरह से सूर्य प्रात: पूर्व से निकलता है और दक्षिण मार्ग से चलकर पश्चिम में अस्त हो जाता है, उसी प्रकार वैदिक विचारकों के अनुसार अपने धार्मिक कृत्यों को बाधा विघ्न विहीन भाव से सम्पादनार्थ प्रदक्षिणा करने का विधान किया गया है।
परिक्रमा का दार्शनिक महत्व : सम्पूर्ण ब्रह्मांड का प्रत्येक ग्रह नक्षत्र किसी न किसी तारे की परिक्रमा कर रहा है। यह परिक्रमा ही जीवन का सत्य है। व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन ही एक चक्र है। इस चक्र को समझने के लिए ही परिक्रमा जैसे प्रतीक को निर्मित किया गया है। भगवान में ही सारी सृष्टि समाई है, उनसे ही सब उत्पन्न हुआ है, हम उनकी परिक्रमा करके यह मान सकते हैं कि हमने सारी सृष्टि की परिक्रमा कर ली।
परिक्रमा का वैज्ञानिक महत्व : वैदिक पद्धति के अनुसार मंदिर वहां बनाया जाता है जहां पृथ्वी की चुम्बकीय तरंगें घनी होती हैं और इन मंदिरों के गर्भगृह में देवताओं की मूर्ति उस चुम्बकीय स्थान पर स्थापित की जाती है तथा मूर्ति के नीचे तांबे के पात्र रखे जाते हैं
जो इन चुम्बकीय तरंगों को अवशोषित करते हैं। इस प्रकार जो व्यक्ति रोज मंदिर जाकर इन मूर्ति की घड़ी के चलने की दिशा में परिक्रमा करता है वह इस ऊर्जा को अवशोषित कर लेता है। यह एक धीमी प्रक्रिया है और नियमित परिक्रमा करने से व्यक्ति में सकारात्मक शक्ति का विकास होता है।
प्रमुख परिक्रमाएं-
देव मंदिर और मूर्ति परिक्रमा: देव मंदिरों में भगवान शिव, दुर्गा, गणेश जी, भगवान विष्णु, हनुमान जी, कार्तिकेय आदि देवमूर्तियों की परिक्रमा करने का विधान है।
किस देव की कितनी परिक्रमा :
भगवान शिव की आधी परिक्रमा की जाती है।
मां दुर्गा की एक परिक्रमा की जाती है।
हनुमान जी एवं गणेश जी की तीन परिक्रमा की जाती हैं।
भगवान विष्णु की चार परिक्रमा की जाती हैं।
भगवान सूर्य की सात परिक्रमा की जाती हैं।
पीपल वृक्ष की 108 परिक्रमा की जाती हैं।
जिन देवताओं की परिक्रमा का विधान प्राप्त नहीं होता है, उनकी तीन परिक्रमा की जा सकती हैं।
नदी परिक्रमा : नर्मदा, गंगा, सरयू, क्षिप्रा, गोदावरी, कावेरी।
पर्वत परिक्रमा : कैलाश, गोवर्धन, गिरिनार, कामदगिरि, तिरुमले।
वृक्ष परिक्रमा : पीपल व बरगद, (वट)।
तीर्थ परिक्रमा : 84 कोस परिक्रमा, अयोध्या, उज्जैन या प्रयाग पंचकोसी यात्रा
चार धाम परिक्रमा : बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री।
भारत खंड परिक्रमा : अर्थात सम्पूर्ण भारत की परिक्रमा। परिव्राजक संत और साधु ये यात्राएं करते हैं। इस यात्रा में पहले-पहले सिंधु की यात्रा, दूसरे में गंगा की यात्रा, तीसरे में ब्रह्मपुत्र की यात्रा, चौथे में नर्मदा, पांचवें में महानदी, छठे में गोदावरी, सातवें में कावेरी, आठवें में कृष्णा और अंत में कन्याकुमारी में इस यात्रा का अंत होता है। प्रत्येक साधु समाज में इस यात्रा का अलग-अलग विधान है।
विवाह परिक्रमा : मनु स्मृति में विवाह के समय वधू को अग्रि के चारों ओर चार बार आगे रह कर तथा वर को तीन बार आगे रह कर परिक्रमा करने का विधान बताया गया है। जिससे दोनों मिलकर 7 बार परिक्रमा करते हैं तो विवाह सम्पन्न माना जाता है।