
जीव के दोष मात्र का कारण उसका अहंकार तथा अभिमान है। इस अहंकार का उदय न हो तथा दीनताभाव सदैव सुदृढ़ रहे इसके लिए ‘श्री कृष्ण शरणम् मम:Ó अर्थात मेरे लिए श्रीकृष्ण ही एकमात्र शरण हैं, रक्षक हैं, आश्रय हैं। वही मेरे लिए सर्वस्व हैं। मैं दास हूं, प्रभु मेरे स्वामी हैं और मैं आपकी शरण में हूं। इस भावना से दीनता बनी रहती है तथा अहंकार का उदय नहीं होता। भगवान श्रीकृष्ण का जीवन दर्शन हमें निष्काम कर्म की प्रेरणा देता है।
निष्काम कर्म करने से व्यक्ति सभी प्रकार के दुख, क्लेश तथा कष्टों से छुटकारा प्राप्त कर लेता है। भगवान कहते हैं स्थित प्रज्ञ बनो, इसमें कर्म तो करना होता है पर उसके फल की कामना, आकांक्षा उसे नहीं सताती है तथा रोग, भय और क्रोध नष्ट हो जाते हैं। वह शांतिपूर्ण जीवनयापन करने लगता है ऐसे में उसे क्लेष संताप, दुख नहीं सताते हैं।
भगवान का अवतार मानव के आरोहण के लिए होता है। जगत् की रक्षा, दुष्टों का संहार तथा धर्म की पुनस्र्थापना ही प्रत्येक अवतार का प्रयोजन होता है। अवतार का अर्थ अव्यक्त रूप से व्यक्त रूप में प्रादुर्भाव होना है। अर्जुन जब नैराश्य में डूब गए तो उन्हें ऐसा ज्ञान दिया कि वे उठ खड़े हुए। कोई भी व्यक्ति उदास होता है तो गीता ज्ञान उसे नैराश्य से उबरने की शक्ति देता है।
छह ऐश्वर्य से पुरुषोत्तम
श्रीकृष्ण परम पुरुषोत्तम भगवान हैं क्योंकि वे सर्वाकर्षक हैं। कोई सर्वाकर्षक किस तरह हो सकता है? सबसे पहली बात यह है कि यदि कोई अत्यंत धनी है, तो वह सामान्य जनता के लिए आकर्षक हो जाता है। यदि कोई अत्यंत सुन्दर या ज्ञानी या सभी प्रकार की सम्पदा से अनासक्त होता है, तो वह भी आकर्षक हो जाता है। अत: हम अनुभव के आधार पर यह देखते हैं कि कोई भी व्यक्ति सम्पत्ति, शक्ति, यश, सौन्दर्य, ज्ञान तथा त्याग के कारण आकर्षक बनता है।
जिस किसी के पास ये छह ऐश्वर्य एक साथ असीम मात्र में हों, तो यह समझना चाहिए कि वह परम पुरुषोत्तम भगवान है। विष्णु पुराण के श्लोकों में परम भगवान के ये छह ऐश्वर्य महान वेदाचार्य पराशर मुनि ने विस्तार से वर्णित किए हैं। युधिष्ठिर द्वारा आयोजित राजसूर्य यज्ञ में महान नैष्ठिक ब्रह्मचारी भीष्मदेव ने स्वयं यह घोषित किया था कि श्रीकृष्ण उन से भी महान ब्रह्मचारी हैं। इस प्रकार हम यह समझ सकते हैं कि श्रीकृष्ण केवल एक असाधारण ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं, अपितु साक्षात्परम पुरुषोत्तम भगवान हैं तथा मनुष्य जीवन का उद्देश्य पूर्णत: उनके शरणागत होना है।
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