
20वीं शताब्दी में अर्जेंटीना की बर्बादी की शुरूआत 1946 में हुई जब जुआन डोमिंगो पेरोन देश के राष्ट्रपति बने। वो देश की अर्थव्यवस्था में एक नई विचारधारा लेकर आए, पेरोनिज्म। इसमें मजदूरों के हित में नीतियां बनाई गईं, उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया गया और एक मजबूत राज्य-नियंत्रित अर्थव्यवस्था की कल्पना की गई।
बीसवीं सदी की शुरुआत में अगर कोई देश भविष्य की महाशक्ति बनने की दौड़ में सबसे आगे था, तो वो था अर्जेंटीना। यूरोप से आए प्रवासी, विशाल कृषि भूमि, मांस और गेहूं के वैश्विक निर्यातक और विश्व के सर्वश्रेष्ठ रेलवे नेटवर्क में से एक… अर्जेंटीना को किसी भी पैमाने से देखा जाए, तो यह एक आदर्श शक्ति बनने की दिशा में सबसे आगे दिखाई दे रहा था। साल 1913 में अर्जेंटीना की प्रति व्यक्ति आय जापान, इटली और स्पेन से कहीं ऊपर थी। ब्यूनस आयर्स को “दक्षिण अमेरिका का पेरिस” कहा जाता था। लेकिन यह चकाचौंध स्थायी नहीं रही। वह देश जो एक समय “शानदार भविष्य के साथ वर्तमान” की मिसाल था, वो 21वीं सदी में आर्थिक बर्बादी, कर्ज और मुद्रास्फीति का चेहरा बन गया। सवाल है… कि आखिर 100 सालों में ऐसा क्या हुआ जिसने अर्जेंटीना को गिरते-गिरते रसातल में पहुंचा दिया?
इसके पीछे पेरोनिज्म यानि लोगों को लुभाने की राजनीति है। यानि वोट के लिए देश की अर्थव्यवस्था को बर्बाद करने का रास्ता चुनना। अर्जेंटीना में यही किया गया। भारत में भी कई राजनीतिक पार्टियां सत्ता हथियाने के लिए इसी पेरोनिज्म का सहारा लेती हैं। मुफ्तखोरी की प्रथा भारत में भी जोरों से चल रहीं हैं और इसका असर भी काफी दिखा है, जब कई राजनीतिक पार्टियां सालों तक सत्ता में रही हैं और कई राजनीतिक पार्टियों ने चुनाव जीतने के लिए ऐसे ऐसे वादे कर डाले कि सरकार में आने के बाद उनका पूरा होना लगभग असंभव जैसा हो गया।
लोकलुभावनवाद की चादर में दबती अर्थव्यवस्था – 20वीं शताब्दी में अर्जेंटीना की बर्बादी की शुरूआत 1946 में हुई जब जुआन डोमिंगो पेरोन देश के राष्ट्रपति बने। वो देश की अर्थव्यवस्था में एक नई विचारधारा लेकर आए, पेरोनिज्म। इसमें मजदूरों के हित में नीतियां बनाई गईं, उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया गया और एक मजबूत राज्य-नियंत्रित अर्थव्यवस्था की कल्पना की गई। शुरुआत में इसका असर भी देखने को मिला और अर्जेंटीना में सामाजिक असमानता घटती दिखी, लेकिन यह मॉडल जल्दी ही आर्थिक बोझ बन गया। सरकारी सब्सिडियां सरकारी खजाने को डुबोने लगी, देश में मुफ्तखोरी की ऐसी लत लगी की देश की उत्पादकता बुरी तरह से घटने लगी। निजी क्षेत्र सरकार के कंट्रोल की वजह से सिकुड़ता चला गया और विदेशी निवेशकों का भरोसा पूरी तरह से डगमगा गया। जिसके बात 1955 में पेरोन की सरकार का तख्तापलट कर दिया गया। पेरोन तो हटा दिए गये, लेकिन उनकी राजनीतिक विरासत आने वाले दशकों तक आर्थिक नीतियों पर हावी रही।
सिर्फ 10 दिन में बदल गये 5 राष्ट्रपति – साल 1955 से 1983 तक, देश राजनीतिक अस्थिरता की गर्त में डूबता चला गया। बार-बार सैन्य तख्तापलट हुए, हर सरकार ने पिछली नीतियों को उलट दिया, और अर्थव्यवस्था एक दिशा विहीन नाव बन गई। अर्जेंटीना में एक के बाद एक निरंकुश सरकारें सत्ता में आईं और फिर उनका तख्तापलट हुआ। जैसे 1930 में राष्ट्रपती यरीगोयेन का तख्तापलट किया गया, फिर 1943 में राष्ट्रपति रैमोन कास्तिल्लो को सत्ता से बाहर निकाला गया, साल 1955 में राष्ट्रपति जुआन डोमिंगो पेरोन को गद्दी से हटाया गया, 1962 में राष्ट्रपति आर्टुरो फ्रोंडीसी, 1966 में राष्ट्रपति अर्तुरो इल्लिया और 1976 में राष्ट्रपति इसाबेल पेरोन का तख्तापलट किया गया। इस दौरान सरकारों ने निरंकुश आर्थिक नीतियाँ अपनाईं, अत्यधिक कर्ज लिया, मुद्रा नियंत्रण की नीति अपवाई और औद्योगिक उत्पादन में हस्तक्षेप किया, जिससे देश की अर्थव्यवस्था लगातार गर्त में धंसती चली गईं।
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