
पौराणिक धर्म ग्रंथों में वर्णित है कि वनवास के समय जब द्रौपदी नदी में स्नान कर रही थी। उसके कुछ दूर पर दुर्वासा भी स्नान कर रहे थे। दुर्वासा का अधोवस्त्र जल में बह गया। वे बाहर नहीं निकल पा रहे थे।
तब द्रौपदी ने अपनी साड़ी में से थोड़ा-सा कपड़ फाड़कर उनको दिया था। फलस्वरूप उन्होंने द्रौपदी को वर दिया कि उसकी लज्जा पर कभी आंच नहीं आयेगी।
दरअसल दुर्वासा को क्रोधित करना जितना आसान था उन्हें प्रसन्न करना उतना या शायद उससे भी कही ज्यादा मुश्किल। लेकिन पांडवों की माता कुंती ने अपने सेवा भाव से ऋषि दुर्वासा को प्रसन्न करने में सफलता हासिल की थी।
कुंती की सेवा से प्रसन्न होकर ऋषि दुर्वासा ने उन्हें ऐसा मंत्र बताया था जिसकी सहायता से वह देवताओं का ध्यान कर पुत्र रत्न की प्राप्ति कर सकती थी। पांडवों का जन्म इसी मंत्र की सहायता से हुआ था।
अभिज्ञान शांकुतलम के अनुसार क्रोध के आवेग में आकर दुर्वासा ऋषि ने शकुंतला को यह श्राप दिया था कि उसका अपना पति उसे पहचानने से इनकार कर देगा। तो इस घटना के बहुत समय पहले की बात है जब गौतम और वशिष्ठ ऋषि द्वारा लगातार की जाती सराहना से इंद्र के भीतर अहंकार आ गया था।
इंद्र के अहंकार को शांत करने के लिए दुर्वासा ने उन्हें श्राप दिया, जिसके बाद देवताओं की शक्ति क्षीण हो गई।
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