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तपस्या शुरू कर दो, समस्या जाती रहेगी


सुबह-सुबह मंजन जरूरी है, दोपहर में भोजन जरूरी है। शाम को दूरदर्शन जरूरी है, रात्रि में शयन जरूरी है। ठीक इसी तरह जीवन सुमिरण और भजन जरूरी है। सुमिरण शब्द ही कह रहा है सु-मरण। जो सुमिरण करेगा उसका ही सु-मरण होगा। जो जन भजन करता है, वही सज्जन और महाजन है वरना उसे तो दुर्जन ही समझो।
भोजन करना पाप नहीं है। भोजन में भजन को भूल जाना पाप है। भोजन में भगवान को भूल जाना पाप है। जीवन का गणित बड़ा उल्टा है। इसमें वर्तमान को सुधारो तो भविष्य सुधरता है और जीवन को सुधारो तो मरण सुधरता है। मरण को सुधारने से मरण कभी नहीं सुधरता। हां जीवन को सुधार लो तो मरण अपने आप सुधर जाता है।

जन्म जितना सच है मृत्यु भी उतनी ही सुनिश्चित है। मृत्यु-जीवन के कालीन पर पैर रख कर ही आती है। नवजात शिशु की पहली किलकारी में ही मृत्यु की अंतिम घोषणा छिपी होती है। जन्म मंगल है, शुभ है, उत्सव है, तो मृत्यु मातम, अशुभ और अमंगल कैसे हो सकती है? हमारी सोच ने ही उसे मातम और अमंगल माना है, पर ऐसा है नहीं।
भगवान महावीर तो कहते हैं ‘जम्मंदुक्खं’ जन्म भी एक दुख है। दुनिया भले ही उसे उत्सव माने लेकिन सच्चाई यह है कि जन्म भी एक दुख है। जरा (बुढ़ापा) भी एक दुख है और मरण भी एक दुख है। इस अध्यात्म की भाषा को समझ कर जीना वरना बड़े पाप करोगे। संसार तुम्हारे लिए बंधन सिद्ध होगा। माया तुम्हें जकड़ लेगी। मृत्यु ही समस्या नहीं, जन्म भी एक समस्या है।

यहां हर आदमी समस्याओं से घिरा है। अमीर हो या गरीब समस्या दोनों के सामने है। गरीब के सामने समस्या है, भूख लगे तो क्या खाएं? अमीर के सामने समस्या है क्या खाएं तो भूख लगे। समस्याएं दोनों के सामने हैं। समस्याएं भिन्न-भिन्न हो सकती हैं। हर आदमी समस्याओं से जूझ रहा है। युवा हो या बूढ़ा, समस्या दोनों के सामने है। युवा के सामने समस्या है क्या करें समय नहीं मिलता। बूढ़े के सामने समस्या है क्या करें समय नहीं कटता। समस्याएं तो आदमी के पीछे-पीछे उसकी छाया की तरह चल रही हैं।

आम आदमी हो या खास आदमी दोनों के सामने समस्याएं हैं। आम आदमी के सामने समस्या है आज क्या पहनें। खास आदमी के सामने समस्या है आज क्या-क्या पहनें? जीवन में हर तरफ समस्या है। गरीब अमीर होना चाहता है। अमीर सुंदर होना चाहता है। कुंवारे शादी करना चाहते हैं और शादीशुदा मरना चाहते हैं। मतलब साफ है कि कोई भी अपनी उपलब्धि से संतुष्ट नहीं है।
जो जहां है वह वहां से और आगे बढऩा चाहता है। कोई विधायक है तो वह सांसद होना चाहता है। सांसद मंत्री होना चाहता है। मंत्री मुख्यमंत्री होना चाहता है। मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री होना चाहता है।

यहां कोई भी अपने में राजी नहीं है। सब दूसरे जैसा बनना चाहते हैं। दूसरों जैसा होना चाहते हैं। तुम दुनिया में अकेले हो। तुम्हारे जैसा दूसरा कोई नहीं है। तुम्हारे अंगूठे में जैसी रेखाएं हैं वैसी दूसरे के अंगूठे में नहीं। इसलिए तो अगर कोई आदमी निरक्षर है, अनपढ़ है तो साइन के रूप में उसका अंगूठा लेते हैं क्योंकि उसका अंगूठा अनूठा है। तुम चाह कर भी दूसरे जैसे नहीं बन सकते। इसलिए दूसरे जैसे बनने का प्रयास छोड़ दो। तुम केवल तुम हो।

तुम अपने होने में राजी हो जाओ। बस, आज अभी और इसी वक्त आधी समस्याएं खत्म हो जाएंगी। आदमी तपस्या शुरू कर दे तो समस्या जाती रहेगी। व्यायाम के लिए आदमी साइकिल चलाता है लेकिन वह साइकिल वहीं की वहीं रहती है। हमारी स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। जीवन में मनुष्य का चलना तो बहुत होता है, लेकिन पहुंचना कहीं नहीं।

—मुनि श्री तरुण सागर जी