श्री कृष्ण महाभारत के सबसे अधिक महत्वपूर्ण पात्र हैं। महाभारत का युद्ध द्वापर युग के अंत में अब से लगभग 5200 वर्ष पूर्व हुआ। श्री कृष्ण के जीवन चरित का प्रमाणिक स्रोत महाभारत ही है। महाभारत के अनुसार श्री कृष्ण का जीवन बड़ा पवित्र और महान था। राजसूय यज्ञ (महाभारत के युद्ध के पहले की अवस्था)- पांडवों के राज्य का तेज सभी जगह पहुंच चुका था। प्रजा सुखी थी। सभी राजा-महाराजा उनका सिक्का मानते थे। तब युधिष्ठिर ने महाराजाधिराज (चक्रवर्ती सम्राट) की उपाधि पाने के लिए राजसूय यज्ञ की ठानी। इसके संबंध में उन्होंने अपने मंत्रियों और भाइयों को बुलाकर पूछा, ‘‘क्या मैं राजसूय यज्ञ कर सकता हूं?’’
सबने जवाब दिया, ‘‘हां, अवश्य कर सकते हैं, आप इसके योग्य पात्र हैं।’’
व्यास आदि ऋषियों से यही प्रश्र किया। उन सबने भी हां में ही उत्तर दिया परंतु युधिष्ठिर को श्री कृष्ण से सम्मति लिए बिना तसल्ली न हुई। उन्होंने श्री कृष्ण से कहा, ‘‘हे कृष्ण! कोई तो मित्रता के कारण मेरे दोष नहीं बताता, कोई स्वार्थवश मीठी-मीठी बातें करता है। पृथ्वी पर ऐसे लोग ही अधिक हैं। उनकी सम्मति से कोई काम नहीं किया जा सकता। आप इन दोषों से रहित हैं इसलिए आप ही मुझे ठीक-ठीक सलाह दें।’’
तब श्री कृष्ण बोले, ‘‘महान पराक्रमी जरासंध के जीते जी आपका राजसूय यज्ञ पूरा न होगा। उसको हराने के बाद ही यह महान कार्य सफल हो सकेगा।’’
जरासंध वध : जरासंध बड़े विशाल और वैभवशाली राज्य मगध का राजा था। वह बड़ा क्रूर और अत्याचारी था। उसने अपने यहां 86 राजाओं को बंदी बना रखा था और यह ऐलान कर रखा था कि जब इनकी संख्या 100 हो जाएगी वह इन सब की बलि चढ़ा देगा। यह अत्याचार श्री कृष्ण को सहन नहीं था इसी कारण वह उसे समाप्त करना चाहते थे। जरासंध का जन, धन, बल इतना अधिक था कि रणक्षेत्र में उसे हराना असंभव था। श्री कृष्ण ने नीति से जरासंध का भीम से युद्ध करवा दिया जिसमें जरासंध मारा गया। तब श्री कृष्ण ने सभी बंदी राजाओं को मुक्त कर दिया और जरासंध के पुत्र सहदेव को मगध का राजा बना दिया।
प्रथम अर्घ्य (पहला सम्मान) : राजसूय यज्ञ आरंभ होने पर भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर से कहा कि उपस्थित राजाओं में जो सबसे श्रेष्ठ है उसे ही प्रथम अर्घ्य देना चाहिए। युधिष्ठिर ने भीष्म से ही पूछ लिया कि ऐसा व्यक्ति कौन है जो पहले अर्घ्य पाने का पात्र है? इस पर भीष्म ने कहा, ‘‘इन सब राजाओं में श्री कृष्ण तेज, बल, पराक्रम में सबसे अधिक हैं इसलिए वही प्रथम अर्घ्य पाने के योग्य हैं।’’ तब युधिष्ठिर की आज्ञा पाकर सहदेव ने श्री कृष्ण को प्रथम अर्घ्य दिया।
संधि का प्रस्ताव : पांडवों ने 12 वर्ष वन में बिताने के बाद 13वां वर्ष अज्ञातवास में बिताया। फिर कौरवों से अपना राज्य मांगा। जब कौरवों ने राज्य देने से इंकार कर दिया, तब पांडवों ने युद्ध का निश्चय कर लिया। अंतिम कोशिश के तौर पर श्री कृष्ण कौरवों के पास जाने को तैयार हुए। सबने उनको रोका कि कौरव मानने वाले नहीं हैं। तब श्री कृष्ण ने कहा, ‘‘संसार में कार्य सिद्धि के दो आधार होते हैं- एक मनुष्य का पुरुषार्थ, दूसरा ईश्वर इच्छा। मैं पुरुषार्थ तो कर सकता हूं, ईश्वर इच्छा मेरे अधीन नहीं है इसलिए फल मैं नहीं जानता। मैं इतना जानता हूं कि मुझे यथाशक्ति भर प्रयास कर लेना चाहिए।’’
हस्तिनापुर पहुंचने पर महात्मा विदुर ने श्री कृष्ण से कहा कि दुर्योधन मानने वाला नहीं है। अत: आप संधि का प्रयत्न छोड़ दें। तब श्री कृष्ण ने कहा, ‘‘सारी पृथ्वी खून से लथपथ होती देखी नहीं जाती।’’
श्री कृष्ण ने संधि के लिए दुर्योधन, धृतराष्ट्र, कर्ण से बात की, उन्हें समझाने का प्रयास किया परंतु सफलता न मिली। इस दौरान दुर्योधन ने उन्हें अपने यहां भोजन करने के लिए कहा। तब श्री कृष्ण बोले, ‘‘राजन! किसी के घर का अन्न दो कारणों से खाया जाता है- या तो प्रेम के कारण या आपत्ति पडऩे पर। प्रीति तो तुम में नहीं है और संकट में हम नहीं हैं।’’
सुखी और उन्नत जीवन के लिए दो गुणों की आवश्यकता है- एक विद्वता और दूसरा बल। श्री कृष्ण में ये दोनों गुण विद्यमान थे। उनकी बुद्धिमता और नीति के कारण ही कम शक्ति के होते हुए भी महाभारत के युद्ध में पांडवों ने कौरवों पर विजय प्राप्त की और शक्तिशाली, अत्याचारी राजा जरासंध को मार गिराया। श्री कृष्ण ने शारीरिक बल के सहारे ही अत्याचारी राजा कंस को यमलोक पहुंचा दिया और घमंडी शिशुपाल का वध कर दिया।
श्री कृष्ण पूर्ण योगी थे क्योंकि उन्होंने जो भी काम किए उनमें अपनी बुद्धि बल और नीति से सफलता प्राप्त की। महाभारत के युद्ध में जब अर्जुन और कर्ण के बीच लड़ाई हो रही थी तब कर्ण के रथ का पहिया पृथ्वी में धंस गया और वह उसे निकालने के लिए रथ से नीचे उतरा। तब कर्ण ने अर्जुन को लड़ाई के धर्म की दुहाई दी और वह चिल्लाया कि निहत्थे पर वार करना धर्म नहीं है। इस पर श्री कृष्ण बोले, ‘‘अरे कर्ण! अब धर्म-धर्म चिल्लाता है परंतु :
जिस समय तुम, दुशासन, शकुनि और सौबल सब मिलकर ऋतुमती द्रौपदी को घसीट लाए थे, उस समय तुम्हें धर्म की याद न आई?
जब तुम बहुत से महारथियों ने मिलकर अकेले अभिमन्यु को घेरकर मार डाला था, उस समय तुम्हारा धर्म कहां गया था?
जब 13 वर्ष के वनवास के बाद पांडवों ने अपना राज्य मांगा और तुमने नहीं दिया तब तुम्हारा धर्म कहां गया था?
जब तुम्हारी सम्मति से दुर्योधन ने भीम को विष खिलाकर नदी में डाल दिया था, तब तुम्हारा धर्म कहां गया था?’’
जब वारणावर्त नगर में लाख के घर में तुमने सोते हुए पांडवों को जलाने का प्रयत्न किया था, तब तुम्हारा धर्म कहां गया था?’’
कर्ण को इतना कहकर श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा, ‘‘इस प्रकार दलदल में फंसे कर्ण का वध करना पुण्य है, पाप नहीं।’’
दूसरे ही क्षण कर्ण अर्जुन के बाण से घायल होकर गिर गया।
यह थी श्री कृष्ण की नीतिमत्ता
श्री कृष्ण को पांडवों द्वारा कौरवों के साथ जुआ खेलना, जुए में सब कुछ हार जाना और वन में चले जाना, इन सब बातों का पता तब चला जब पांडव वन में रह रहे थे। श्री कृष्ण वन में पांडवों से मिलने गए। वहां जाकर उन्होंने कहा कि यदि मैं द्वारिका में होता तो हस्तिनापुर अवश्य आता और जुए के बहुत से दोष बताकर जुआ न होने देता।
ऐसा था श्री कृष्ण का नैतिक बल और आत्मविश्वास। दूसरी ओर भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, धृतराष्ट्र आदि बड़े लोग जुआ और जुए से जुड़े अन्य दुष्कर्म अपनी आंखों के सामने देखते रहे पर उनमें से किसी में भी उसे रोकने का साहस न हुआ।