
चीन के दबाव के आगे झुकते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन के सदस्य देशों ने ताइवान को ऑब्जर्वर स्टेटस देने का फैसला टाल दिया। 2016 तक ताइवान को चीनी ताइपे नाम से डब्लूएचओ में ऑब्जर्वर स्टेटस का दर्जा था। हालांकि, चीनी सरकार के साथ ताइवान के रिश्तों में आई खटास के कारण उसे डब्लूएचओ से बाहर कर दिया गया। ताइवान की सरकार ने डब्लूएचओ के इस फैसले का जोरदार विरोध किया है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के सदस्य देशों ने सोमवार को अपनी मुख्य वार्षिक सभा के दौरान अमेरिका और अन्य की ओर से हाल के दिनों में दबाव बढ़ाये जाने के बावजूद ताइवान को पर्यवेक्षक का दर्जा देने पर विवादास्पद चर्चा टालने का निर्णय किया। विश्व स्वास्थ्य सभा की अब तक की पहली वीडियो सभा की शुरुआत में देशों ने ताइवान को पर्यवेक्षक पहुंच प्रदान करने के संबंध में निर्णय इस वर्ष के अंत तक टालने का सर्वसम्मति से निर्णय किया जिससे कोविड-19 महामारी पर से ध्यान भंग न हो।
चीन ने किया खुलकर विरोध
बता दें कि चीन ने ताइवान को पर्यवेक्षक पहुंच प्रदान करने के कदम का जोरदार विरोध किया था। चीन ने ताइवान की डब्लूएचओ में उपस्थिति को अपनी राष्ट्रीय एकता का विषय बना लिया है। हालांकि ताइवान की वर्तमान सरकार ने चीन के इस कदम का जोरदार विरोध किया है।
2016 तक WHO में ऑब्जर्वर था ताइवान
ताइवान को कई वर्षों तक इस सम्मेलन में पर्यवेक्षक के रूप में शामिल होने का निमंत्रण मिलता रहा लेकिन 2016 में इसे बंद कर दिया गया क्योंकि ताइवान के राष्ट्रपति त्साई इंग-वेन ने ताइवान को एक चीन का हिस्सा मानने की अवधारणा को मान्यता देने से इनकार कर दिया। बेलीज, ग्वाटेमाला समेत 15 देशों ने डब्ल्यूएचओ प्रमुख को इस एजेंडे में ताइवान की भागीदारी के सवाल को शामिल करने के लिए पत्र लिखा था। हालांकि ऐसा करने वालों में अमेरिका शामिल नहीं था।
क्यों है चीन और ताइवान में तनातनी
1949 में माओत्से तुंग के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी ने चियांग काई शेक के नेतृत्व वाले कॉमिंगतांग सरकार का तख्तापलट कर दिया था। जिसके बाद चियांग काई शेक ने ताइवान द्वीप में जाकर अपनी सरकार का गठन किया। उस समय कम्यूनिस्ट पार्टी के पास मजबूत नौसेना नहीं थी। इसलिए उन्होंने समुद्र पार कर इस द्वीप पर अधिकार नहीं किया। तब से ताइवान खुद को रिपब्लिक ऑफ चाइना मानता है।
ताइवान को अपना हिस्सा मानता है चीन
चीन ताइवान को अपना अभिन्न अंग मानता है। चीनी कम्यूनिस्ट पार्टी इसके लिए सेना के इस्तेमाल पर भी जोर देती आई है। ताइवान के पास अपनी खुद की सेना भी है। जिसे अमेरिका का समर्थन भी प्राप्त है। हालांकि ताइवान में जबसे डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी सत्ता में आई है तबसे चीन के साथ संबंध खराब हुए हैं।
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