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मंगल पर वैज्ञानिकों को मिले विशाल बाढ़ के निशान, 4 अरब साल पहले गिरे उल्कापिंड ने किया था यह हाल?


मंगल पर जीवन है या नहीं, इसका जवाब ढूंढने के लिए वैज्ञानिक रिसर्च करते रहते हैं। ताजा स्टडी में वैज्ञानिकों को चौंकाने वाले नतीजे मिले हैं। जैकसन स्टेट यूनिवर्सिटी, कॉर्नेल यूनिवर्सिटी, जेट प्रोपल्शन लैबोरेटरी और यूनिवर्सिटी ऑफ हवाई के वैज्ञानिकों को पता चला है कि मंगल पर करीब 4 अरब साल पहले भयानक बाढ़ आई थी।
स्टडी के एक वैज्ञानिक अल्बर्टो जी फाइरान ने बताया है कि Curiosity रोवर को मिले सेडिमेंटोलॉजिकल डेटा के आधार पर पहली बार भयानक बाढ़ का पता चला है। इससे पहले बाढ़ से पीछे रह गए डिपॉजिट्स को कभी पहचाना नहीं जा सका था। इसी महीने Scientific Reports जर्नल में छापी गई रिपोर्ट में Gale Crater और उसकी सेडिमेंटरी लेयर्स से मिले डेटा को स्टडी किया गया है। इसकी मदद से पहले पानी, हवा और दूसरे फैक्टर्स को समझा गया है।
कैसे आई बाढ़? : रोवर को Gale Crater में megaripples (विशाल लहरों के निशान) मिले जो कभी वहां आई बाढ़ की ओर इशारा करते हैं। रिसर्चर्स का मानना है कि हो सकता है कि किसी उल्कापिंड की वजह से यह विशाल बाढ़ आई हो। इसकी वजह से मंगल पर मौजूद बर्फ पिघल गई और कार्बनडायऑक्साइड और मीथेन रिलीज होने लगीं। इससे मंगल पर हालात गर्म और गीले हालात पैदा हुए। इसके बाद भारी बारिश हुई होगी।
डॉ. राम करन ने जर्मनी, इटली, सऊदी अरब और फ्रांस के शोधकर्ताओं के साथ काम करते हुए अंटार्कटिका में मिले एक सूक्ष्मजीव की उन विशेषताओं का पता लगाया है जिनके कारण वह मंगल के वातावरण के समान परिस्थितियों में भी जीवित रहता है। इस शोध को स्विट्जरलैंड स्थित एक प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय साइंस जर्नल ‘माइक्रोऑर्गनिज्म’ ने स्वीकार किया है। यह विशेष सूक्ष्मजीव अंटार्कटिका में एक बहुत बड़ी नमकीन झील ‘डीप लेक’ से खोजा गया था। डॉ. राम करन ने इस जीव में एक एंजाइम ‘लैक्टेज’ (बीटा-गैलेक्टोसिडेस) की खोज की है। उन्होंने इसकी बनावट के बारे में भी विस्तार से बताया है।
यह तो अभी मालूम नहीं है कि मंगल ग्रह के वातावरण में जीवन उपस्थित है या नहीं लेकिन नासा और अन्य देशों के अभियान इस बात का पता लगाने का कार्य कर रहे हैं।

साल 2017 में Proceedings of the National Academy of Sciences of the United States of America में लिखे उनके एक पेपर में अंटार्कटिक के सूक्ष्मजीवी की चर्चा की गई थी। इसमें बताया गया था कि बैक्टीरिया के जीवन का मॉलिक्यूलर आधार मंगल पर जीवन और हमारी आकाशगंगा में दूसरे ग्रहों की खोज जैसा है।

पानी बहुत बहुमूल्य संसाधन है। सतह पर मौजूद पानी अगर इस्तेमाल लायक होता है तो यह बड़ी सफलता हो सकती है। जीवन की संभावना और ज्यादा बढ़ जाती है। भले ही मंगल पर मौजूद पानी नमकीन लगता हो, हमें ऐसे extremophiles के बारे में पता है जो नमकीन पर्यावरण में रह पाते हैं। एक और बात ध्यान में रखने वाली यह है कि ऐस्ट्रोनॉट्स को पीने के लिए पानी चाहिए होता है। ऑक्सिजन को निकालने पर सांस लेने के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। ऑक्सिजन और हाइड्रोजन का रॉकेट के ईंधन में इस्तेमाल किया जाता है।

मंगल पर जाने के लिए किसी भी ईंधन की एक किलो मात्रा करोड़ों डॉलर की हो सकती है। पीने का पानी, ऑक्सिजन और सतह पर ईंधन के होने से मंगल मिशन का खर्च कम हो जाता है। भविष्य के मिशन नए इंस्ट्रुमेंट्स जाएंगे और ऐसी टेक्नॉलजी को टेस्ट किया जाएगा जिनसे जीवन से जुड़े सवालों के जवाब मिलेंगे।

एक जाहिर सा सवाल है कि क्या मंगल की झीलों या तालाबों से जीवन को मदद मिल सकती है? ताजा स्टडी में इस बात के संकेत मिले हैं कि मंगल पर सतह के पास मौजूद माने जा रहे नमकीन पानी में ऑक्सिजन की इतनी मात्रा हो सकती है जिससे extremophiles की शक्ल में माइक्रोबियल जीवन को आधार मिल सके। इससे स्टडी से मंगल पर जीवन की संभावना को बल मिला है।

अंटार्कटिक डीप लेक (Antarctic Deep Lake) धरती पर सबसे ठंडा और सबसे एक्सट्रीम जलीय पर्यावरण है। मंगल से समानता के चलते मरीन बायॉलजिस्ट्स और ऐस्ट्रोबायॉलजिस्ट के लिए डीप लेक आकर्षण का केंद्र रहा है। यह लेक कभी जमती नहीं है। यहां तक कि -20 डिग्री सेल्सियस से नीचे के तापमान में भी यह जमती नहीं क्योंकि यहां नमक बहुत ज्यादा है। मंगल के जमे हुए ध्रुव पर नमकीन पानी की खोज extremophiles की स्टडी से समान है।

उनकी रिसर्च में मंगल पर जीवन के लिए जरूरी प्रोटीन्स के खास फीचर सामने आए हैं। भविष्य में जब वैज्ञानिक मंगल के नमक के सैंपल्स को जीवन की खोज के लिए स्टडी करेंगे, वे धरती पर पाए जाने वाले जीवन में इसकी समानता खोजेंगे। ऐसे में डॉ. राम की स्टडी की मदद से उन अलग-अलग फैक्टर्स के कॉम्बिनेशन की बेहतर समझ की संभावना पैदा होती है जो धरती और दूसरे ग्रहों पर पाए जा सकते हैं।

समुद्री बर्फ में रहने वाले माइक्रोब्स को सैंपल करना मुश्किल होता है। प्रजीव (protist) ब्राइन चैनल (खारे पानी) में रहते हैं जो ताजे पाने की बर्फीले क्रिस्टल में बनते हैं। नाजुक जीवों, सैंपलिंग और लैब टेक्नीक को बचाने के लिए खारेपन में ज्यादा बदलाव नहीं होने चाहिए जो बर्फ के पिघलने से पैदा होते हैं। बर्फ में सैंपलिंग Ice corer या Jiffy drill से होती है। Ice corer में सिलिंडर के आकार में समुद्री बर्फ मिलती है। इससे सैंपल काटे जाते हैं और फिल्टर किए गए समुद्री पानी में पिघलाया जाता है और माइक्रोब्स को स्टडी किया जाता है।

इसके अलावा एक तरीका होता है छेद ड्रिल करने का जिसके जरिए माइक्रोब्स के साथ खारे पाने को जाने दिया जाता है। इन सैंपल को लैब लाया जाता है जहां कम तापमान में इंक्यूबेशन टैंक, कल्चर फसिलटी और अनैलेटिकल इक्विपमेंट होते हैं।

समुद्र के सबसे नीचे पर्यावरण धरती का सबसे बड़ा ईकोसिस्ट है जो करीब 65% हिस्से पर फैला है। जलवायु परिवर्तन के कारण यहां भी असर पड़ने के सबूत मिलते जा रहे हैं। ये सीधे तौर पर समुद्र के तल में बढ़ते तापमान, ऑक्सिजन की मात्रा और pH को प्रभावित करता है और अप्रत्यक्ष तौर पर समुद्र की उत्पादकता और इसके जरिए समुद्र के तले पर ऑर्गैनिक मैटर की मौजूदगी को प्रभावित करता है।

उम्मीद की जा रही है कि अब यूनिवर्सिटी समेत रिसर्च और साइंस पर फेडरल फंड बढ़ेगा जो बाइडेन प्रशासन की प्राथमिकता होगी। कोरोना वायरस की महामारी, जलवायु परिवर्तन और स्पेस एक्सप्लोरेशन ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें बाइडेन सकारात्मक तरीके से प्रभावित करेंगे। बाइडेन ने प्रस्ताव दिया है कि आर्थिक और जलवायु नीतियों के प्लैटफॉर्म के जरिए रिसर्च और डिवेलपमेंट पर अरबों बिलियन डॉलर खर्च किए जाएंगे। बाइडेन ने ऐलान किया था कि कैंसर, अल्जाइमर और डायबिटीज के इलाज की खोज के लिए अरबों डॉलर खर्च किए जाएंगे।

अब तक 37 रिसर्च पेपर पब्लिश कर चुके डॉ. राम करन को अपने शोध कार्यों के लिए कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं। इनमें अमेरिका, जापान और इटली में मिले पुरस्कार भी शामिल हैं। दिल्ली से लगे बागपत जिले के गांव ट्योढ़ी में शायद ही कभी किसी ने सोचा होगा कि प्राथमिक स्कूल से पढ़ाई करने वाला और गन्ने के खेत में परिवार का हाथ बंटाने वाला नौजवान रामकरण शर्मा एक दिन दुनिया का सर्वोत्कृष्ट युवा वैज्ञानिक बनेगा। डॉ. रामकरण को जापान के फुकुओका और इटली में सर्वोत्कृष्ट युवा वैज्ञानिक पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। 35 देशों के 150 वैज्ञानिक प्रतिभागियों के बीच प्रतिद्वंद्विता में उनके शोध को पुरस्कृत किया गया। फिलहाल वह दुनिया को औद्योगिक प्रदूषण से मुक्त करने की दिशा में शोध कर रहे हैं। अमेरिकी सरकार ने उन्हें संयुक्त राज्य अमेरिका में रिसर्च फेलोशिप के लिए चयनित किया जो एशिया के 48 देशों में से सिर्फ एक वैज्ञानिक को मिलती है।

डॉ. राम करन के लिए यह मुकाम हासिल करना आसान नहीं था। वह डॉक्टर बनना चाहते थे। उनकी मां प्रकाशी देवी को प्रदूषण की वजह से अस्थमा की समस्या थी और इसी से जूझते हुए उनकी मृत्यु हो गई। पढ़ाई के दौरान मां की मौत से रामकरण टूट गए और उनकी डॉक्टरी की तैयारी बाधित हो गई लेकिन उन्होंने जीवन में हार नहीं मानी और उन्होंने निश्चय किया कि अपनी पढ़ई पूरी कर प्रदूषण, चिकित्सा और पर्यावरण पर शोध करेंगे ताकि प्रदूषण का स्थाई हल निकल सके। बड़ौत में जनता वेदिक डिग्री कॉलेज से बीएससी और एमएससी किया। नेट (जेआरएफ, जूनियर रिसर्च फेलो) क्वॉलिफाई कर पहुंचे आईआईटी दिल्ली जहां से उन्होंने पीएचडी पूरी की। आईआईटी में अध्ययन के दौरान उनके पिता ब्रहमदत्त शर्मा को कैंसर हो गया। दिन में पढ़ाई करने वाले डॉ. राम करण रात में पिता की सेवा करते थे लेकिन तीन साल की सेवा के बाद उनके पिता का निधन हो गया। डॉ. रामकरण शर्मा की पत्नी अनुपमा शर्मा ने भी दिल्ली आईआईटी से एम-टेक किया है, वह यूएसए में फिजिक्स और मैथमेटिक्स की असिस्टेंट प्रोफेसर रह चुकी हैं। डा. रामकरण के प्रयासों में वह भी पूरा सहयोग करती हैं।

अल्बर्टों का कहना है कि स्टडी इशारा करती है कि शुरुआती दिनों में मंगल के हालात ऐसे थे कि वहां तरल पानी हुआ करता था। उन्होंने कहा कि इससे संकेत मिलते हैं कि वहां जीवन संभव था लेकिन क्या वहां जीवन था? इसके जवाब ढूंढने में Perseverance रोवर मदद कर सकता है।