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जो नहीं जानते है कि हम क्या है, हम कौन है, वे पागल ही है।

जब ओस्पेंस्की, गुरूजिएफ के पास साधना कर रहा था तो उसे तीन-चार महीनों तक इस बात के लिए बहुत श्रम करना पड़ा कि आत्म-स्मरण की एक झलक मिले। निरंतर तीन महीनों तक ओस्पेंस्की, एकांत घर में रहकर एक ही प्रयोग करता रहा—आत्म-स्मरण का प्रयोग। तीस व्यक्तियों ने उस प्रयोग में हिस्सा लिया और पहले ही सप्ताह के खत्म होते-होते सत्ताईस व्यक्ति भाग खड़े हुए। सिर्फ तीन बचे। सारा दिन वे और कोई काम नहीं करते थे। सिर्फ स्मारण करते थे कि ‘मैं हूं’। सत्ताईस लोगों को ऐसा लगा कि इस प्रयोग से वो पागल हो जाएंगे। हमारे विक्षिप्ति होने के सिवाय कोई चारा नहीं है। और वे गायब हो गये। वे फिर कभी नहीं वापस आये। वे गुरूजिएफ से फिर कभी नहीं मिले।
हम जैसे है, असल में हम विक्षिप्त है। पागल ही है। जो नहीं जानते है कि वह क्या है, वह कौन है, वे पागल ही है। लेकिन हम इस विक्षिप्तता को ही स्वस्थ माने बैठे है। जब तुम पीछे लौटने की कोशिश करोगे। जब तुम सत्य से संपर्क साधोगे तो वह विक्षिप्तता जैसा, पागलपन जैसा ही मालूम पड़ेगा। हम जैसे है, जो है उसकी पृष्टगभूमि से सत्य ठीक विपरीत है। और अगर तुम जैसे हो उसको ही स्वस्थ मानते हो तो सत्य जरूर पागलपन मालूम पड़ेगा।
लेकिन तीन व्यक्ति प्रयोग में लगे रहे। उन तीन में पी. डी. ओस्पेंस्की भी एक था। वे तीन महीने तक प्रयोग में जुटे रहे। पहले महीने के बाद उन्हें अभास मात्र होने लगा कि — मैं हूं, झलक मिलने लगी। दूसरे महीने के बाद मैं भी गिर गया और उन्हें स्वयं की झलक मिलने लगी। इस झलक में मात्र होना ही था। मैं भी नहीं था, क्योंकि मैं भी एक संज्ञा है। शुद्ध अस्तित्व। न मैं है न तू, वह बस है। और तीसरे महीने के बाद हूं, पन का भाव भी विसर्जित हो गया। क्योंकि हूं-पन का भाव भी एक शब्द है। यह शब्द भी विलीन हो जाता है। तब तुम बस हो और तब तुम जानते हो कि तुम कौन हो बस।
इस घड़ी के आने के पूर्व तुम नहीं पूछ सकते कि मैं कौन हूं। या तुम सतह पर पूछते रह सकते हो कि मैं कौन हूं। और मन जो भी उत्तर देगा वह गलत होगा। अप्रासंगिक होगा। तुम पूछते जाओ कि मैं कौन हूं, मैं कौन हूं, एक क्षण आएगा जब तुम यह प्रश्न नहीं पूछ सकते। पहले सब उत्तर गिर जाते है और फिर खुद प्रश्न भी गिर जाता है। और सब खो जाता है। सब कुछ कि मैं कौन हूं, गिर जाता है, बस तुम तुम्हेंे इतना अाभास रह जाता है कि तुम हो।
गुरजिएफ ने एक सिरे से इस विधि का प्रयोग किया: सिर्फ यह स्मारण रखना है कि मैं हूं। रमण महर्षि ने इसका प्रयोग दूसरे सिरे से किया। उन्होंने इस खोज को कि “मैं कौन हूं’’ पर पूरा ध्यान बन दिया। उन्होंने इस खोज को कि “मैं कौन हूं।” और इसके उत्तर में मन जो भी कहे उस पर विश्वास मत करो। मन कहेगा कि क्या। व्यर्थ का सवाल उठ रहे हो। मन कहेगा कि तुम यह हो, तुम वह हो, कि तुम मर्द हो, तुम औरत हो, तुम शिक्षित हो, अशिक्षित हो, गरीब हो, अमीर हो, मन उत्तर दिए जाता है। लेकिन तुम प्रश्न पूछते चले जाना। कोई भी उत्तर मत स्वीकार करना। क्योंकि मन के लिए दिए गये सभी उत्तर गलत होगे। वे उत्तर तुम्हारे झूठे हिस्से से आते है। वे शब्दों से आते है। वे शास्त्रों से आते है। वे तुम्हारे संस्कारों से आते है, वे समाज से आते है। सच तो यह है कि वे सब के सब दूसरों से आते है। तुम्हारे नहीं है। तुम पूछे ही चले जाओ, कि मैं कौन हूं, इसे गहरे से गहरे में उतरने दो।
एक क्षण आएगा जब कोई उत्तर नहीं आएगा। वह सम्यक क्षण होगा। अब तुम उत्तर के करीब हो। जब कोई उत्तर नहीं आता है, तुम उत्तर के करीब होते हो। क्योंकि अब मन मौन हो रहा है। अब तुम मन से बहुत दूर निकल गए हो। जब कोई उत्तर नहीं होगा और जब तुम्हारे चारो और एक शून्य निर्मित हो जाएगा तो तुम्हारा प्रश्न पूछना व्यर्थ मालूम होगा।
अचानक तुम्हा‍रा प्रश्न भी गिर जायेगा। और प्रश्न के गिरते ही मन का आखिरी हिस्सा भी गिर गया। खो गया क्यों कि यह प्रश्न भी मन का ही था। वे उत्तर भी मन के थे और यह प्रश्न भी मन का था। दोनों विलीन हो गए। अब तुम बस हो।
इसे प्रयोग करो। अगर तुम लगन से लगे रहे तो पूरी संभावना है कि यह विधि तुम्हें सत्य की झलक दे जाए। और सत्य शाश्वत है।
ओशो – विज्ञान भैरव तंत्र, भाग-3, प्रवचन—35