
कलियुग में एक भक्ति ही सहारा है। अपने आराध्य को, उसके गुणों को पाना, उन-सा होना बस यही भक्ति है। यही पूजा और साधना है। पूजा के लिए पदार्थ चाहिए लेकिन सेवा के लिए केवल मन चाहिए। तीर्थ सिर्फ पूजा के स्थल नहीं, सेवा के केंद्र भी बनने चाहिएं। हमें तीर्थों के माध्यम से शिक्षा, चिकित्सा और विपन्न-सेवा भी करनी है। जो हम देते हैं, उससे विकास होता है और जो हम लेते हैं उससे गुजारा होता है। देना लेने से हमेशा ऊंचा है। जो देता जाएगा वह बढ़ता जाएगा और जो रखता जाएगा वह सड़ता जाएगा। देना सीखो।
हनुमान की राम जी से मुलाकात हो गई तो वह राम को अपनी व्यथा सुनाने लगे। ‘मो सम कौन कुटिल खल कामी…’, वगैरह।
राम बोले : भैया! तू तो यहां कथा सुनाने आया था, अपनी व्यथा सुनाने लगा।
हनुमान ने कहा, ‘‘प्रभो! कथा तो आप जैसे महापुरुष की होती है, हमारी तो व्यथा ही होती है।’’
राम जी बोले, ‘‘अच्छा एक बात बता, मेरी कथा कहता है दुनिया के सामने और अपनी व्यथा कहता है मेरे सामने तो इसके पीछे राज क्या है?’’
हनुमान ने कहा, ‘‘इसके पीछे राज यही है कि मेरी व्यथा सुनकर आपको मेरे प्रति करुणा जाग जाएगी और आपकी कथा सुनकर लोगों के दिलों में आपके प्रति भक्ति जाग जाएगी।’’
तो प्रभु के प्रति भक्ति जगे यही मेरा उद्देश्य है और निवेदन है कि जो चला गया उसके लिए मत सोचो। जो नहीं मिला उसकी कामना मत करो और जो मिल गया उसे अपना मत समझो। दो दर्पण हैं। एक बाहर का दर्पण और दूसरा भीतर का। बाहर के दर्पण में रूप दिखाई देता है और भीतर के दर्पण में स्वरूप मन को दर्पण बनाओ और उसमें अपना रूप निहारो, स्वरूप निहारो।
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