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जापान ने तोड़ दी कसम, पहली बार अमेरिका को निर्यात की पेट्रियट मिसाइलें, चीन के लिए खतरे की घंटी


जापान ने अपने इतिहास में पहली बार अमेरिका को अपने देश में बनी पेट्रियट सतह-से-हवा मिसाइल इंटरसेप्टर निर्यात की है। इससे पहले जापान ने कभी भी किसी भी देश को पूरी हथियार प्रणाली निर्यात नहीं की है। इसे जापान की रक्षा नीति में एक बहुत बड़े बदलाव के तौर पर देखा जा रहा है।
जापानी मीडिया ने रक्षा सूत्रों के हवाले से दावा किया है कि जापान ने इतिहास में पहली बार अपने देश में बनी पेट्रियट सतह-से-हवा मिसाइल इंटरसेप्टर अमेरिका को निर्यात की है। इनकी संख्या कितनी है फिलहाल इसका खुलासा नहीं किया गया है। यह कदम सिर्फ एक सैन्य सौदा नहीं, बल्कि जापान की दशकों पुरानी रक्षा नीति में एक बड़ा बदलाव माना जा रहा है। जापान ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से ही खुद की सैन्य शक्ति को सिर्फ रक्षात्मक ही बनाए रखने की कसम खाई थी।
दिसंबर 2023 में जापान ने बदला था नियम – क्योदो न्यूज एजेंसी के अनुसार यह निर्यात उन नए नियमों के तहत संभव हुआ है जिन्हें जापान ने दिसंबर 2023 में लागू किया था। इन नियमों ने हथियारों के निर्यात पर लगी कई पाबंदियों को आंशिक रूप से ढील दी, जिससे अब जापान लाइसेंस प्राप्त देशों को पूरे हथियार सिस्टम भी भेज सकता है, सिर्फ पार्ट्स नहीं।
पेट्रियट पीएसी-3 इंटरसेप्टर क्या हैं – अमेरिका को भेजी गई ये मिसाइलें पेट्रियट पीएसी-3 इंटरसेप्टर हैं, जो बैलिस्टिक और क्रूज मिसाइलों जैसी हवा में ही दुश्मन के हथियार को मार गिराने में सक्षम हैं। यह मिसाइल सिस्टम अमेरिकी लाइसेंस के तहत जापान में मित्सुबिशी हैवी इंडस्ट्रीज द्वारा बनाया जाता है। जापान का कहना है कि यह निर्यात अमेरिका की सेना के स्टॉक को भरने के लिए है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में यूक्रेन संघर्ष के चलते अमेरिका अपने सहयोगियों को लगातार मिसाइल सहायता दे रहा है और उसके भंडार पर दबाव बढ़ रहा है। इस पृष्ठभूमि में जापानी आपूर्ति अमेरिकी रक्षा तैयारियों को मजबूत करने में मदद करेगी।
जापान ने अमेरिकी निर्यात के लिए बताई शर्तें –
जापान की सरकार ने यह भी स्पष्ट किया है कि ये मिसाइलें केवल अमेरिका के उपयोग के लिए हैं और वॉशिंगटन इन्हें किसी तीसरे देश को नहीं भेजेगा। यह फैसला इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि जापान की जनता और उसकी राजनीति लंबे समय से हथियार निर्यात को लेकर बेहद संवेदनशील रही है। विश्व युद्ध के बाद जापान ने “सिर्फ रक्षा” की नीति अपनाई थी, जिसके तहत हथियारों का विदेश में भेजा जाना लगभग पूरी तरह प्रतिबंधित था। इसलिए यह सौदा बड़े राजनीतिक विमर्श के बाद संभव हुआ।