लोगों के साथ भगवान कृष्ण का बर्ताव करुणा से भरा था लेकिन कुछ लोगों के साथ वह बड़ी कठोरता से पेश आते थे। जब जिस तरह से जीवन को संभालने की जरूरत पड़ी, उन्होंने उसे उसी तरह से संभाला। हालात के लिए जो उचित हो, वही करने पर जोर देते थे श्री कृष्ण।
श्री कृष्ण जब-जब लड़ाई के मैदान में भी उतरे, तो भी आखिरी पल तक उनकी यही कोशिश थी कि युद्ध को कैसे टाला जाए लेकिन जब टालना मुमकिन नहीं होता था तो वह मुस्कराते हुए लड़ाई के मैदान में एक योद्धा की तरह लड़ते थे।
एक बार जरासंध अपनी बड़ी भारी सेना लेकर मथुरा आया। वह कृष्ण और बलराम को मार डालना चाहता था, क्योंकि उन्होंने उसके दामाद कंस की हत्या कर दी थी। कृष्ण और बलराम जानते थे कि उन्हें मारने की खातिर जरासंध मथुरा नगरी की घेराबंदी करके सारे लोगों को यातनाएं देगा।
अत: लोगों की जान बचाने के लिए उन्होंने अपना परिवार और महल छोडऩे का फैसला किया और जंगल में भाग गए। इसके लिए उनको रणछोड़ भी कहा गया (आज भी कहा जाता है) लेकिन उन्होंने इसकी परवाह नहीं की क्योंकि उस समय मथुरा वासियों की जान बचाना ज्यादा जरूरी था।
जब श्रीकृष्ण भाग रहे थे तब जरासंध का एक साथी असूर कालयवन भी उनसे युद्ध करने आ पहुंचा। दोनो उनका पीछा करने लगे। इस तरह श्रीकृष्ण रणभूमि से भागे क्योंकि कालयवन के पूर्व जन्म के पुण्य बहुत ज्यादा थे व श्रीकृष्ण किसी को भी तब तक सजा नहीं देते थे जब कि पुण्य का बल शेष रहता था।
इस दौरान उन्हें तरह-तरह के शारीरिक कष्ट झेलने पड़े। श्री कृष्ण ने इसे बड़ी सहजता से लिया। उन्होंने सभी हालात का मुस्कराते हुए सामना किया। ध्यान रखें, हालात के लिए जो उचित हो, वही करें।