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Life on Exoplanets: धरती की तरह धुरी पर झुके ग्रहों पर जीवन की ज्यादा संभावना, ऐसे महासागरों में ज्यादा ऑक्सिजन

धरती की तरह किसी सितारे का चक्कर काटते हुए अपनी धुरी पर झुके ग्रहों पर जीवन की संभावना ज्यादा हो सकती है। अमेरिकी स्पेस एजेंसी NASA की फंड की हुई एक स्टडी के मुताबिक इसका संबंध वायुमंडल में मौजूद ऑक्सिजन से है। ताजा स्टडी में रिसर्चर्स ने एक मॉडल तैयार किया जिसमें जीवन के लिए जरूरी कंडीशन्स रखी गईं। किसी कंडीशन में बदलाव होने के ऑक्सिजन की मात्रा पर असर को समझा गया।
क्या पड़ा असर? : पूर्डू यूनिवर्सिटी की लीड रिसर्चर स्टेफनी ऑल्सन ने बताया कि मॉडल में दिन की लंबाई, वायुमंडल की मात्रा से लेकर जमीन की मौजूदगी के जलीय जीवन पर असर को देखा गया। यह समझने की कोशिश की जा रही थी कि ऑक्सिजन पैदा करने वाले जीवों पर इसका क्या असर पड़ेगा। किसी ग्रह पर लंबे दिन, सतह पर ज्यादा दबाव और महाद्वीपों के बनने से ऑक्सिजन बढ़ती है।
3 अरब लोगों का घर चलाते हैं महासागर, 2050 तक डुबा देंगे मुंबई? अरब सागर में दिखने लगा है खतरा : दुनियाभर में 3 अरब से ज्यादा लोग महासागरों पर जीविका के लिए निर्भर हैं। बावजूद इसके इनके ऊपर पड़ते असर को एक सीमित आबादी के लिहाज से गंभीर समझा जाता है। महासागरों से दूर रहने वालों को लगता है कि वहां से उपजी कोई भी समस्या उनसे काफी दूर है और वे सुरक्षित रहेंगे। अमेरिका की National Oceanic and Atmospheric Administration की Geophysical Fluid Dynamics Laboratory (GFDL) में प्रॉजेक्ट साइंटिस्ट डॉ. हिरोयुकी मुराकमी ने नवभारत टाइम्स ऑनलाइन से बातचीत में बताया है कि नई स्टडीज में पाया गया है कि ट्रॉपिकल साइक्लोन ज्यादा लंबे वक्त तक जमीन पर रह सकते हैं और गर्म तापमान में जमीनी भाग पर और ज्यादा दूर तक जा सकते हैं। इससे संकेत मिलता है कि जमीनी भाग में रहने वाले लोगों पर तूफान से जुड़ा नुकसान होने का ज्यादा खतरा रहता है। महासागरों के गर्म होने से ज्यादा तेज मूसलाधार बारिश भी बार-बार हो सकती है। इसलिए महासागर से दूर रहने वालों को खुद को सुरक्षित समझना ठीक नहीं है। (तस्वीर: बायें डॉ. हिरोयुकी मुराकमी, क्रेडिट मारिया सेट्जर; दायें NOAA)
डॉ. मुराकमी के मुताबिक ऑब्जर्वेशन्स से कन्फर्म किया गया है कि महासागरों की सतह का औसतन तापमान लगातार बढ़ रहा है, खासकर 20वीं सदी के बाद से। एक चिंता यह है कि बढ़ता तापमान दुनिया में हर जगह एक जैसा नहीं है। कुछ जगहें दूसरी जगहों से ज्यादा गर्म हैं। ये अलग-अलग तापमान होने की वजह से ऐसे सर्कुलेशन होते हैं जो ग्लोबल ट्रॉपिकल साइक्लोन ऐक्टिविटी पर असर डालता है। हिंद महासागर ऐसा है जहां 1980 के बाद से काफी ज्यादा गर्मी देखी गई है। हमने हिंद महासागर में, खासकर अरब सागर में 1980 के बाद से ज्यादा संख्या में तीव्र चक्रवात देखे हैं। हमारी क्लाइमेट मॉडलिंग स्टडी के आधार पर पाया गया है कि इंसानी गतिविधियों के कारण ये गर्मी हो रही है। पिछले 50 साल में धरती पर जो वॉर्मिंग हुई है उसमें से 90 प्रतिशत महासागरों में हुआ है।
गर्म पानी के ऊपर चक्रवात तीव्र हो जाते हैं। अरब सागर में आमतौर पर समुद्र की सतह का तापमान 28 डिग्री सेल्सियस से कम रहता है और 1891 से 2000 के बीच सिर्फ 93 चक्रवात रिकॉर्ड किए गए। वहीं, बंगाल की खाड़ी में तापमान हमेशा 28 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा रहता है और इतने ही समय में यहां 350 चक्रवात आए। साल 2001 और 2021 के बीच अरब सागर में 28 चक्रवात आए और तूफानों की तीव्रता भी तेज हो गई। यह बढ़ते समुद्री तापमान का नतीजा था जो 31 डिग्री सेल्सियस तक जाता था। साल 2016 में नेचर में छपी एक स्टडी पाया गया था कि इंसानी गतिविधियों के कारण होने वाली ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से अरब सागर में गंभीर तूफानों की संख्या बढ़ी है।
हवा के मुकाबले पानी का तापमान बदलने के लिए उसके तापमान में ज्यादा बढ़त या गिरावट होनी चाहिए। यह काफी मुश्किल और लंबे समय में होने वाली प्रक्रिया होती है। इस कारण थोड़ा सा भी बदलाव होने पर पानी में रहने वाले जीव उसे झेल नहीं पाते और बुरी तरह प्रभावित होते हैं। महासागर कार्बनडाइऑक्साइड के लिए सिंक का काम करते हैं। ये इस गैस को सोखते हैं और वायुमंडल को साफ करते हैं। इस प्रक्रिया में पानी का pH कम होता है लेकिन प्राकृतिक सीमा से ज्यादा ऐसिडिफिकेशन का बुरा असर पड़ सकता है। प्रदूषक तत्वों के पानी में मिलने से भी pH कम होता है।
डॉ. मुराकमी बताते हैं कि वैज्ञानिक इस बात पर सहमत हैं कि ग्रीन हाउस गैसें ग्लोबल वॉर्मिंग का मुख्य कारण हैं। हमें जल्द से जल्द ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करना होगा। नेताओं, समस्या के सभी पक्षों और वैज्ञानिकों को इस समस्या को सुलझाने के लिए मिलकर काम करना होगा। यह किसी एक देश की समस्या नहीं हैं। अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों को इसमें शामिल होना होगा। हाल ही में की गईं स्टडीज में पाया गया है कि 1971 से 2010 के बीच क्लाइमेट सिस्टम में जमा ताप में बढ़ोतरी का 63 प्रतिशत महासागरों के ऊपरी हिस्से में हुई गर्मी के कारण रहा। वहीं 700 मीटर नीचे गरमाहट से 30% ज्यादा गर्मी हुई।
नेचर इकॉलजी ऐंड एवलूशन में छपे रिसर्च पेपर के मुताबिक प्रशांत महासागर में स्थित धरती के सबसे गहरे क्षेत्र मारियाना ट्रेंच में प्रदूषण का स्तर पास के ऐसे क्षेत्रों से भी ज्यादा पाया गया जहां भारी औद्योगिकरण है। इससे संकेत मिलते हैं कि इंसानी गतिविधियों की वजह से होने वाला प्रदूषण गहराई में पहुंचने तक जमा होता रहता है (bioaccumulation)। मारियाना में प्लास्टिक के बर्तनों, डिब्बों, बैग जैसे कई सामान पाए जा चुके हैं। ब्रिटेन की द रॉयल सोसायटी जर्नल में छपी रिपोर्ट के मुताबिक मारियाना ट्रेंच में ऐंफीपॉड जीवों में माइक्रोप्लास्टिक तक पाई गई है जो प्लास्टिक की बोतलों से लेकर हमारे कपड़ों तक में मौजूद होती है। आमतौर पर एशिया में चीन और जापान जैसे देशों के उद्योगों से ये माइक्रोप्लास्टिक पानी में पहुंचते हैं।
प्राकृतिक और मानव-निर्मित प्रदूषक तत्व आखिर में महासागरों में ही जा मिलते हैं। नदियों का पानी समुद्र के रास्ते वहां तक पहुंचता है। इनमें सीवर से लेकर नैविगेशन डिस्चार्ज ऑइल, ग्रीज, डिटर्जेंट, कचरा, यहां तक की रेडियोऐक्टिव कचरा भी होता है। सबसे ज्यादा खतरा तेल फैलने से होता है। इसकी वजह से पानी में ऑक्सिजन का स्तर कम होता है और आग लगने का खतरा भी बढ़ता है। इससे पानी के जीवों को खतरा पहुंचता है।
यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि मरी हुई मछलियां गहरे पानी तक मरकरी यानी पारा लेकर जाती हैं। समुद्र में पारे का मिलना बेहद खतरनाक संकेत दिखाता है। ये एक न्यूरोटॉक्सिन होता है यानी दिमाग पर असर करता है। रिसर्च के मुताबिक कोयले पर निर्भर बिजली संयंत्र, सीमेंट फैक्टरी, इनसिनरेटर, खदानों और दूसरे ऐसे कल-कारखानों से ये जहर बारिश और धूल के जरिए नदियों के जरिए समंदर तक पहुंचता है। सूक्ष्मजीवी इसे और ज्यादा जहरीले मेथिलमरकरी (methylmercury) में तब्दील करते हैं। यह मछलियों और दूसरे सीफूड के जरिए इंसानों और वन्यजीवों के तंत्रिका तंत्र (nervous system), प्रतिरक्षा प्रणाली (immunity system) और पाचक तंत्र (digestive system) को भारी खतरा पहुंचा सकता है। डॉ. राम करन का कहना है कि भारत और दूसरे दक्षिण एशियाई देशों को कोयले पर आधारित ऊर्जा संयंत्रों में पारे के उत्सर्जन को सीमित करना चाहिए। (तस्वीर: NOAA Office of Ocean Exploration and Research)
महासागरों पर पड़ने वाला असर ग्लोबल वॉर्मिंग का ही एक नतीजा है। डॉ. मुराकमी के मुताबिक, ‘हम छोटी-छोटी चीजों से शुरू कर सकते हैं जैसे कंप्यूटर और ऐसी बंद करना। क्लीन और सतत ऊर्जा का इस्तेमाल धरती को खतरे से बचाने के लिए जरूरी है।’ आम लोगों को यह समझना होगा कि हमारा एक-एक कदम सिर्फ हमारे आसपास ही नहीं, दुनिया के दूर-दराज कोनों पर भी असर डालता है। इससे न सिर्फ उन इलाकों में रहने वाले लोगों के सिर पर संकट खड़ा हो जाता है बल्कि घूम-फिरकर हमारे जीवन को भी मुश्किल करता है। महासागरों से अरबों साल पहले जीवन विकसित भी हुआ और अभी भी इनके सहारे चल रहा है। इन्हें बचाया जाना इस वक्त की एक बड़ी चुनौती है। (फोटो: NOAA)
महासागर हैं जरूरी : रिसर्चर्स के मुताबिक इन सबसे महासागर के सर्कुलेशन पर असर पड़ता है और जीवन के लिए जरूरी न्यूट्रियंट्स पर भी। इनकी मदद से धरती में ऑक्सिजन की मात्रा आज यहां तक पहुंची है। इसी तरह जब किसी ग्रह के धुरी पर झुके होने के कोण को समझा गया तो पाया गया कि इससे महासागरों में ज्यादा ऑक्सिजन बनती हैं। दरअसल, इससे बायॉलजिकल तत्व बेहतर रीसाइकल होते हैं।