पुरी। आषाढ़ शुक्ल द्वितीया के दिन प्रतिवर्ष ओडिशा के पुरी में भगवान जगन्नाथ की विशाल रथयात्रा निकाली जाती है। यह रथयात्रा धार्मिक महोत्सवों में महत्त्वपूर्ण समझी जाती है। रथयात्रा न केवल देशी अपितु विदेशी पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केन्द्र रहती है।
शास्त्रों के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के अवतार जगन्नाथ की रथयात्रा के दर्शनों का पुण्य सौ यज्ञों के बराबर माना जाता है। यही कारण है कि इस रथयात्रा के दर्शनों के लिए लाखों श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ता है।
सागर तट पर बसे पुरी शहर में होने वाली ‘जगन्नाथ रथयात्रा उत्सव’ के समय आस्था का दुर्लभ विराट वैभव देखने को मिलता है। साल में यही एक यही वह मौका होता है जब भक्तों को सीधे प्रतिमाओं तक पहुंचने का बहुत ही सुनहरा अवसर प्राप्त होता है।
अक्षय तृतीया से शुरू हो जाती है तैयारियां – हर साल जगन्नाथ रथयात्रा का दस दिवसीय महोत्सव आयोजित होता है। यात्रा की तैयारी अक्षय तृतीया के दिन श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा के रथों के निर्माण के साथ ही शुरू होती है। देश-विदेश से लाखों लोग इस पर्व के साक्षी बनने हर वर्ष यहां आते हैं।
भारत के चार पवित्र धामों में से एक पुरी के 800 वर्ष पुराने मुख्य मंदिर में श्रीकृष्ण जगन्नाथ के रूप में विराजते हैं। साथ ही यहां बलभद्र एवं सुभद्रा की प्रतिमाएं भी विराजित है।
धातु का नहीं होता है प्रयोग – रथयात्रा के लिए बनाए जाने वाले रथों का निर्माण केवल लकड़ियों से ही होता है। रथ में कोई भी कील या कांटा, किसी भी धातु का नहीं लगाया जाता। यह एक धार्मिक कार्य है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता रहा है। रथों का निर्माण अक्षय तृतीया से ‘वनजगा’ महोत्सव से प्रारम्भ होता है।
रथ के लिए लकड़ियां एकत्र करने का कार्य बसन्त पंचमी से ही शुरू हो जाता है। रथयात्रा के बाद पुराने रथों की लकड़ियां भक्तजन श्रद्धापूर्वक ख़रीद लेते हैं और अपने–अपने घरों की खिड़कियाँ, दरवाज़े आदि बनवाने में इनका उपयोग करते हैं।
यह है मंदिर का इतिहास – भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा का जितना धार्मिक महत्व है उतनी ही इसकी कथा भी रोचक है। पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा इन्द्रद्युम्न भगवान जगन्नाथ को शबर राजा से यहां लेकर आए थे तथा उन्होंने ही भगवान के मूल मंदिर का निर्माण कराया था जो बाद में नष्ट हो गया।
इस मूल मंदिर का कब निर्माण हुआ और यह कब नष्ट हो गया, इस बारे में कही कोई जानकारी नहीं है। ययाति केशरी ने भी एक मंदिर का निर्माण कराया था। 12वीं शताब्दी में चोल गंगदेव तथा अनंग भीमदेव ने वर्तमान 65 मीटर ऊंचे मंदिर का निर्माण कराया था।
जगन्नाथपुरी का वर्णन स्कन्द पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण और ब्रह्म पुराण में भी मिलता है। जगन्नाथ मंदिर के निजी भृत्यों की एक सेना है, जो 36 रूपों तथा 97 वर्गों में विभाजित कर दी गयी है। पहले इनके प्रधान खुर्द के राजा थे, जो अपने को जगन्नाथ का भृत्य समझते थे।