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सांप्रदायिकता से जूझते अफ़सानानिगार मंटो

ArunRajak• अरुण प्रसाद रजक

सआदत हसन मंटो का पूरा संघर्ष आदमीयत या इंसानियत के लिए था। वे जानते थे कि अहसास के शुरुआती छोर से लेकर आखिरी छोर तक एक इन्सान सिर्फ इन्सान है, उससे बड़ा न कोई धर्म है, न मज़हब, न व्यवस्था। मंटो आदमीयत के इस अहसास से अच्छी तरह वाकिफ़ थे। उनके अफ़सानों का सरोकार न राजनीति से है, न व्यवस्था से। उनके अफ़साने इन्सान और इंसानियत की ज़िंदादिली का अहसास कराते हैं।
मंटो अपनी कहानी ’सहाय’ के आरंभ में ही लिखते हैं – “यह मत कहो कि एक लाख हिंदू और एक लाख मुसलमान मरे हैं… यह कहो कि दो लाख इन्सान मरे हैं…
सांप्रदायिकता एक ऐसा विषय है, जिसका संबंध भारत-पाकिस्तान विभाजन से बरबस जुड़ जाता है। ’सहाय’ कहानी में जिन स्थितियों का चित्रण है, वह भारत विभाजन से उपजी हैं। कल तक प्रेम और सद्भावना में रही दो क़ौमें अचानक एक-दूसरे की दुश्मन हो जाती हैं। मारकाट, लूटपाट, आगजनी, अपहरण, बलात्कार का ऐसा सिलसिला आरंभ होता है कि मानवता के पतन और शर्मिंदगी की कहानी जन्म लेती है और मंटो एक ऐसे कहानीकार के रूप में उपस्थिति दर्ज करवाते हैं, जो हमारे संवेदना को झकझोर कर, अपने समय और समाज से कुछ अहद करने को कहते हैं। इन्सान और इन्सानियत विरोधी राजनीति, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, शोषण, उत्पीड़न जौसे तथ्यों से मंटो परिचित ही नहीं करवाते, अहम सवाल भी उठाते हैं। ’सहाय’ कहानी में सांप्रदायिक स्थितियों का कारुणिक चित्रण करने के बाद मंटो कहते हैं- “एक लाख हिंदू मारकर मुसलमानों ने यह समझा होगा कि हिंदू मज़हब मर गया है, लेकिन वह ज़िंदा है और ज़िंदा रहेगा… इसी तरह एक लाख मुसलमान क़त्ल करके हिंदुओं ने बगलें बजाई होंगी कि इस्लाम ख़त्म हो गया है, मगर हक़ीक़त आपके सामने है कि इस्लाम पर एक हल्की-सी ख़राश भी नहीं आई… “ मंटो ने धार्मिक पाखंड और मजहब के नाम पर आम आदमी की ज़हालत और शोषण को करीबी से देखा था। जब धर्म का क्षरण होता है, तब आदमी के ऊपर हैवानियत सिर चढ़कर बोलती है, सांप्रदायिकता पनपती है, जिसमें अन्य धर्म को जड़ से उखाड़ने के नाम पर इंसानियत मरती है, ’गोश्त की बोटी-बोटी थिरकती’ है जबकि “मज़हब, दीन, ईमान, धर्म, यक़ीन, अक़ीदत – यह सब जो कुछ भी है, हमारे जिस्म में नहीं, रूह में होता है… छुरे, चाकू और गोली से यह सब कैसे फ़ना हो सकता है।”
मंटो के अफ़साने की ख़ासियत यह है कि उसमें आक्रोश की कोई तलछट नहीं है, लेकिन सच कहने का साहस और जुर्रत बेजोड़ है। सच कहने के इस साहस ने मंटो को कई बार संकट में डाला, लेकिन मंटो ने सवालों को कभी मरने नहीं दिया। उनके अफ़साने हमें इंसानियत की उस ऊँचाई पर ले जाते हैं, जहाँ वे इंसानियत के लिए उन सभी चीज़ों को ज़मीन की सात परतों के भीतर गाड़ने को कहते हैं, जो समाज को खोखला कर रहा है। ’मोज़ेल’ कहानी में यहूदी लड़की मोज़ेल अपनी जान की कु़र्बानी देकर अपने सिक्ख प्रेमी त्रिलोचन सिंह और उसकी मंगेतर की जान मुस्लिम दंगाइयों से बचाती है। मोज़ेल के माध्यम से लेखक ने दंगों के दौर में एक मानवीय पक्ष का बोध कराया है। ”ठंडा गोश्त’ कहानी में दंगे की भयावहता की अनुगूंज लड़की की उस मरी हुई लाश में सुनायी देता है, जिसकी बोटी थिरक रही है। धार्मिक नफ़रत से उपजी हिंसा ने सिर्फ मज़बूत कद-काठी वाले ईश्वर सिंह को ही नामर्द और ठंडा गोश्त नहीं किया, उसने समूचे समाज को, पूरी इंसानियत को ठंडे गोश्त में बदल दिया। कल तक जो अपनी पत्नी कुलवंत कौर को शारीरिक संतुष्टि प्रदान करता रहा था, आज वही ईश्वर सिंह तमाम हीलों के बावजूद जिस्मानी खेल में और कोई औरत उसमें यौन-पिपासा की जान फूँकने में असमर्थ है। ये कहानियाँ अपने समय का इतिहास दिखाती हुई आने वाले कल में अपनी मर्मस्पर्शिता से दिल में जगह बनाए रहती है। इसी अर्थ में मंटो कालजयी कहानीकार हैं।
देश विभाजन ने मंटो को पूरी तरह से विभाजित कर दिया था। उन्होंने भारत-पाक विभाजन को कभी स्वीकार नहीं किया। ’टोबा टेकसिंह’ का बिशन सिंह 15 साल से पागलखाने में था। विभाजन के बाद पागलों के दल को लाहौर के पागलखाने से बाघा के बॉर्डर के पास ज़बरदस्ती लाया गया। ये सभी हिंदू-सिक्ख थे। मंटो लिखते हैं – “अधिकतर पागल इस तबादले को नहीं चाहते थे। इसलिए कि उनकी समझ में नहीं आता था कि उन्हें अपनी जगह से उखाड़कर कहाँ फेंका जा रहा है।” यहाँ विस्थापन के दर्द की आशंका तो है ही, ’अपनी ज़मीन’ से प्रेम भी स्पष्ट होता है। विभाजन ने पागलों तक को बेचैन कर दिया, तो आम आदमी की क्या हालत होगी ! बिशन सिंह के लिए हिंदुस्तान और पाकिस्तान दो अलग मुल्क नहीं है। “वे उन तमाम हिंदू और मुसलमान लीडरों को गालियाँ देने लगा जिन्होंने मिल मिलाकर हिंदुस्तान के दो टुकड़े कर दिए हैं।” मंटो ने बार-बार यह बताया है कि विभाजन से मनुष्य को खोने के अलावा पाने की कोई गुंजाइश नहीं होती, फिर भी इसे अंजाम दिया गया। हज़ारों लोग बेघर हो गए। इतना ही नहीं बहुत से निर्दोष लोगों की कीमती जानें चली गई।
मंटो की एक और कालजयी कहानी, जो सांप्रदायिक उन्माद के भयावहता के अमानवीय पक्ष को उजागर करती है- ’खोल दो’ है। बूढ़े सिराजुद्दीन को दंगे में खो गयी अपनी बेटी सकीना की तलाश है। सकीना जब उसे मिली तो मरी हुई सी अवस्था में थी। डॉक्टर जब सिराजुद्दीन को खिड़की खोलने के लिए कहता है, तब सकीना के ’मुर्दा जिस्म में जुंबिश हुई… बेजान हाथों ने इजारबंद खोला. . ..और सलवार नीचे सरका दी।’ कल्पना की जा सकती है कि सकीना को कैसी असह्य पीड़ाओं से गुजरना पड़ा होगा कि ’खोल दो’ शब्द उसकी मरी हुई जिस्म के जेहन तक में बस चुका है और यह देखकर ’डॉक्टर सिर से पैर तक पसीने में गर्क हो चुका था’ – यह उस दंगे भयावहता का आभास है। यह कहानी इंसानियत की रगों को सुन्न कर देती है। सिराजुद्दीन का चिल्लाना कि हमारी बेटी ज़िंदा है – एक बाप को सबसे बड़ी खुशी प्राप्त होती है कि दंगे की भयावता के बावजूद उसकी बेटी हासिल हो गयी। मनुष्यता को बेदम कर देने वाली असहाय पीड़ा और दर्द से मंटो के पात्र गुज़रे हैं। मंटो ने भटकाव के दौर में अपनी कलम का सही इस्तेमाल किया। वे आजीवन सांप्रदायिकता से जूझते रहें। आज के संदर्भों में मंटो और अधिक प्रासंगिक लगते हैं। अपने बेशकीमती अफ़सानों से समाज को ललकारने वाले मंटो अभी कब्र में दफ़्न है। मानवीय मूल्यों के ख़त्म होते इस दौर में मंटो को कब्र से बाहर आने की ज़रूरत है, कलम उठाकर समाज को फिर से ललकारने की जरूरत है।