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सिर्फ ये लोग ही कर सकते हैं श्राद्ध


भारतीय धर्म संस्कृति में पितरों को देवतुल्य माना गया है। मातृ देवो भवः तथा पितृ देवो भवः के भावना हमारे संस्कृति में उनके दिव्य स्थान को प्रदर्शित करता हैं। इस दौरान लोग अपने बड़े-बुजुर्गों के लिए दान पुण्य का काम करते हैं। पितृपक्ष में पितरों की आत्मा की मुक्ति या मोक्ष दिलाने की कामना को लेकर पिंडदान और श्राद्ध करने आने वाले पिंडदानियों के लिए विष्णुनगरी, मोक्षधाम यानी गया पूरी तरह तैयार है। अश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या 15 दिन पितृपक्ष के नाम से जाना जाता है। इन पंद्रह दिनों में लोग अपने पितरों (पूर्वजों) को जल अर्पित करते हैं व उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं। पिता-माता आदि पारिवारिक मनुष्यों की मौत के बाद उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृश्राद्ध कहते हैं। यहां हम आपको बताने जा रहे हैं कि श्राद्ध किसे करना चाहिए।
श्राद्ध का अधिकार पुत्र को प्राप्त है। लेकिन यदि पुत्र जीवित न हो तो पौत्र, प्रपौत्र या विधवा पत्नी भी श्राद्ध कर सकती है। पुत्र के न रहने पर पत्नी का श्राद्ध पति भी कर सकता है। यदि पिता के अनेक पुत्र हों तो ज्येष्ठ पुत्र को श्राद्ध करना चाहिए। यदि सभी भाई अलग-अलग रहते हों तो वे भी अपने-अपने घरों में श्राद्ध का कार्य कर सकते हैं। यदि संयुक्त रूप से एक ही श्राद्ध करें तो वह अच्छा होता है। पुत्र परंपरा के अभाव में भाई तथा उनके पुत्र भी श्राद्ध का कार्य कर सकते हैं। यदि कोई भी उत्तराधिकारी न हो तो प्रपौत्र या परिवार का कोई भी व्यक्ति श्राद्ध कर सकता है। तर्पण तथा पिंडदान केवल पिता के लिए ही नहीं बल्कि समस्त पूर्वजों एवं मृत परिजनों के लिए भी किया जाता है। समस्त कुल, परिवार तथा ऐसे लोगों को भी जल दिया जाता है, जिन्हें जल देने वाला कोई न हो।
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पितृपक्ष में पिंडदान मृत्युतिथि के दिन ही किया जाता है। देवताओं और ऋषियों को जल देने के बाद पितरों को जल देकर तृप्त किया जाता है। पितृपक्ष में पुरुषों को जल, तिल जौ, दुग्ध, कुश और श्वेत पुष्प आदि से तर्पण और श्राद्ध संपन्न करना चाहिए। इसके बाद गो-ग्रास देकर ब्राह्मण भोजन अवश्य कराना चाहिए। पिंडदान की क्रिया दोपहर में अधिक फलदायिनी होती है। इससे पितर प्रसन्न होते हैं और उनके आशीर्वाद से श्राद्ध करने वाले को धन-धान्य एवं पुत्र-पौत्रादि की प्राप्ति होती है। जिन लोगों की मृत्यु की तिथि ज्ञात न हो उनका श्राद्ध अमावस्या को करना चाहिए। नवमी, माता के श्राद्ध के लिए पुण्यदायी मानी गई है और शस्त्र आदि से मृत व्यक्तियों का श्राद्ध चतुर्दशी को करने का विधान है। पितृपक्ष में श्राद्ध करने वाले पुरुष और उसकी पत्नी को सात्विक आहार ग्रहण करना चाहिए। साथ ही इस दौरान नए वस्त्र, आभूषण आदि की खरीदारी और उपयोग भी वर्जित माना गया है।