
प्राचीन काल की बात है। शंख और लिखित दो सगे भाई थे। दोनों भाई अलग-अलग आश्रमों में रहते थे। एक बार लिखित शंख के आश्रम पर आए। शंख आश्रम में नहीं थे। लिखित को भूख लगी तो वह आश्रम में लगे वृक्षों से फल तोड़कर खाने लगे।
थोड़ी देर में शंख वापस आश्रम में आए। उन्होंने लिखित से पूछा, ‘‘भैया, तुम्हें ये फल कहां से मिले?’’
लिखित ने कहा, ‘‘ये इसी पेड़ से तोड़े हैं।’’
यह जानकर शंख को बुरा लगा और वह बोले, ‘‘तब तो तुमने चोरी की। अब तुम राजा के पास जाकर कहो कि तुम्हें वह दंड दें, जो एक चोर को दिया जाता है।’’
लिखित ने राजा के पास जाकर वैसा ही कहा। राजा बोले, ‘‘यदि मुझे दंड देने का अधिकार है तो क्षमा करने का भी अधिकार है। मैं आपको क्षमा करता हूं।’’
किंतु लिखित ने दंड देने का अपना आग्रह जारी रखा। अंत में राजा ने न चाहते हुए भी नियमानुसार उनके दोनों हाथ कटवा दिए।
दंड पाकर लिखित शंख के पास गए और उनसे फिर क्षमा मांगी। शंख ने लिखित को नदी पर जाकर देवता और पितरों का विधिवत तर्पण करने को कहा। लिखित द्वारा कार्य संपन्न होते ही उनके कटे हाथ जुड़ गए। उन्होंने शंख को जा कर यह बात बताई तो शंख बोले, ‘‘मैंने अपने तप के प्रभाव से ये हाथ उत्पन्न किए हैं।’’
लिखित ने पूछा, ‘‘यदि आपके तप का ऐसा प्रभाव है तो आपने ही मेरे हाथ क्यों नहीं काट दिए?’’
शंख ने जवाब दिया, ‘‘तुम्हें दंड देने का अधिकार मुझे नहीं, राजा को ही था। इससे राजा के अधिकार का पालन हुआ और तुम भी दोषमुक्त हो गए। अधिकारों का संबन्धित व्यक्ति द्वारा उपयोग करना ही उचित न्याय है। दंड भोगने पर ही उसका सही पश्चाताप होता है।’’
शंख की बात सुनकर लिखित उनके समक्ष नतमस्तक हो गए। अब लिखित अधिकार की सही परिभाषा समझ गए थे।
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