मनोज अबोध
अपने आप से लड़ता मैं
यानी, ख़ुद पर पहरा मैं
वो बोला-नादानी थी
फिर उसको क्या कहता मैं
जाने कैसा जज़्बा था
माँ देखी तो मचला मैं
साथ उगा था सूरज के
साँझ ढली तो लौटा मैं
वो भी कुछ अनजाना-सा
कुछ था बदला-बदला मैं
झूठ का खोल उतारा तो
निकला सीधा सच्चा मैं