
एक दिन श्रील मध्वाचार्य जी समुद्र स्नान के लिये जा रहे थे। जाते-जाते आप श्रीकृष्ण के चिन्तन में मग्न थे। उसी में विभोर आप एक बालु की पहाड़ी पर चढ़ गये। उस समय आपने देखा कि दूर समुद्र की रेतिली भूमि में एक नाव फंस गयी है और वह बड़े ही अजीब ढंग से हिचकोले खा रही है। नाव को चलाने वाले बड़े परेशान हैं। आपको देखकर न जाने उनके मन में क्या आया और उन्होंने दूर से ही इशारा करके आपसे आशीर्वाद मांगा। नौका को निकालने के लिये आपने विशेष मुद्रा के रूप में हाथों की ऊंगलियों का उपयोग किया। आपके हाथों की मुद्रा के प्रभाव से नौका बालु से निकल कर, समुद्र तट पर आ लगी।
नाविक बहुत हर्ष से आपका धन्यवाद देने लगे। वे द्वारका जा रहे थे। वे अपना आभार प्रकट करते हुये आपको कुछ भेंट देना चाहते थे। बहुत मना करने पर भी जब वे नहीं माने तो आप नाव में रखा गोपी चन्दन लेने के लिये तैयार हो गये।
नाविकों ने गोपी चन्दन का एक बड़ा सा ढेला आपको भेंट स्वरूप दिया। जब आपके बहुत से सेवक उसे उठा कर ला रहे थे, तो बड़वन्देश्वर नामक स्थान पर वह टूट गया, और उसमें से एक बहुत ही सुन्दर बाल-कृष्ण जी की मूर्ति प्रकट हो गयी, जिनके एक हाथ में दही मथने वाली मधानी थी और दूसरे हाथ में मधानी की रस्सी।
भगवान बालकृष्ण जी की ऐसी अद्भुत लीला कि वह मूर्ति इतनी भारी हो गयी कि तीस बलवान लोग मिलकर भी उस मूर्ति को उठा नहीं पा रहे थे। जबकि सर्वव्यापि पवनदेव, हनुमान जी व द्वितीय पाण्डव भीम सेन जी के अवतार श्री मध्वाचार्य जी ने अकेले ही उस भारी मूर्ति को अपने हाथों में उठा लिया और बड़े आराम से उन्हें अपने उड़ुपी मठ में ले आये।
श्रील मध्वाचार्य जी ने बहुत सालों तक अपने हाथों से श्री बालकृष्ण जी सेवा की। आज भी दक्षिण भारत के उड़ुपी मठ में भगवान श्री बाल-कृष्ण के दर्शन होते हैं।
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