
कुरु युवराज दुर्योधन के द्वार पर आकर एक भिक्षु ने अलख जगाई, ‘‘नारायण हरि! भिक्षां देहि!’’
उसने दुर्योधन का यशोगान भी किया। स्वयं को कर्ण से भी अधिक दानी समझने वाले दुर्योधन ने स्वर्ण आदि देकर भिक्षुक का सम्मान करना चाहा तो भिक्षुक ने कहा, ‘‘राजन! मुझे यह सब नहीं चाहिए।’’
दुर्योधन ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘तो फिर महाराज कैसे पधारे?’’
भिक्षुक ने कहा, ‘‘मैं अपनी वृद्धावस्था से दुखी हूं। मैं चारों धाम की यात्रा करना चाहता हूं, जो युवावस्था के स्वस्थ शरीर के बिना संभव नहीं है इसलिए यदि आप मुझे दान देना चाहते हैं तो यौवन दान दीजिए।’’
दुर्योधन बोला, ‘‘भगवन्! मेरे यौवन पर मेरी सहधर्मिणी का अधिकार है। आज्ञा हो तो उनसे पूछ आऊं?’’
भिक्षुक ने सिर हिला दिया। दुर्योधन अंत:पुर में गया और मुंह लटकाए लौट आया। भिक्षुक ने दुर्योधन के उत्तर की प्रतीक्षा नहीं की। वह स्वत: समझ गए और वहां से चलते बने। उन्होंने सोचा, अब महादानी कर्ण के पास चला जाए। कर्ण के द्वार पहुंच कर भिक्षुक ने अलख जगाई, ‘‘भिक्षां देहि!’’
कर्ण तुरंत राजद्वार पर उपस्थित हुआ, ‘‘भगवन्! मैं आपका क्या अभीष्ट करूं?’’
भिक्षुक ने दुर्योधन से जो निवेदन किया था, वही कर्ण से भी कर दिया। कर्ण उस भिक्षुक को प्रतीक्षा करने की विनय करके पत्नी से परामर्श करने अंदर चला गया लेकिन पत्नी ने कोई न-नुकुर नहीं की। वह बोली, ‘‘महाराज! दानवीर को दान देने के लिए किसी से पूछने की जरूरत क्यों आ पड़ी? आप उस भिक्षुक को नि:संकोच यौवन दान कर दें।’’
कर्ण ने अविलम्ब यौवन दान की घोषणा कर दी। तब भिक्षुक के शरीर से स्वयं भगवान विष्णु प्रकट हो गए, जो दोनों की परीक्षा लेने गए थे।
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