
प्रति वर्ष 5 सितम्बर को देश में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन महान विद्वान तथा शिक्षक डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्मदिवस है जो बाद में गणतंत्र भारत के प्रथम उप-राष्ट्रपति तथा दूसरे राष्ट्रपति बने। देश भर के विद्यालयों में इस दिन छात्र अपने शिक्षकों को सम्मानित करते हैं। शिक्षक समाज की रीढ़ हैं क्योंकि वे विद्यार्थियों के चरित्र का निर्माण करने और उन्हें देश के आदर्श नागरिक के रूप में ढालने की दिशा में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कहा गया है कि शिक्षक अभिभावकों से भी महान होते हैं। अभिभावक बच्चे को जन्म देते हैं जबकि शिक्षक उसके चरित्र को आकार देकर उज्ज्वल भविष्य बनाते हैं इसलिए हमें उन्हें कभी भूलना और नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। हमें हमेशा उनका सम्मान और उनसे प्रेम करना चाहिए। शास्त्रों से जानें कौन थे आदर्श शिष्य-
श्रीकृष्ण-सुदामा
श्रीकृष्ण किशोरवय में राजकुमार नहीं, युवराज नहीं, सम्राट भी नहीं, साम्राज्य के संस्थापक हैं। कंस उनके करों के एक झटके में ध्वस्त हो गया और उग्रसेन-मथुरेश उग्रसेन को प्रणाम न करें तो इंद्र भी देवराज न रह सकें, यह श्रीकृष्ण का प्रचंड प्रताप था। जब श्रीकृष्ण गुरुकुल गए तो उन्नोंने ब्रह्मचारी-वेश बनाया और उनके साथ समवेशधारी दरिद्र ब्राह्मण-कुमार सुदामा। कोई विशेषता नहीं, कोई सम्मानता नहीं। ब्राह्मण कुमार के साथ उसी के समान श्रीकृष्ण भी गुरु सेवा के लिए समिधाएं वहन करते हैं, गुरु की हवन-क्रिया के लिए जंगल से लकड़ी लाते हैं। किंतु महर्षि सांदीपनि का आश्रम-किसी महर्षि का गुरुकुल तो साम्य का आश्रम है। श्रीकृष्ण कोई हों, कैसे भी हों, कितने भी ऐश्वर्यशाली हों और कितना भी दरिद्र हो सुदामा-महर्षि के चरणों में दोनों छात्र हैं। मानव-मानव के मध्य किसी भेद का प्रवेश गुरुकुल की सीमा में यह कैसे संभव है। श्रीकृष्ण और बलराम जी ने गुरु दक्षिणा में महर्षि सांदीपनि का मृत पुत्र उन्हें जीवित अवस्था में लौटाया था।
एकलव्य
आचार्य द्रोण-कुरुकुल के राजकुमारों के शस्त्र-शिक्षक थे। राजकुमारों के साथ एक भील के लड़के को वे कैसे बैठने की अनुमति देते। एकलव्य जब उनके समीप शस्त्र शिक्षा लेने आया था, तब उन्होंने अस्वीकार कर दिया था। एकलव्य की निष्ठा- सच्ची लगन सदा सफल होती है। उसने वन में आचार्य द्रोण की मृत्तिका की मूर्ति बना कर उसी को गुरु माना और अभ्यास प्रारंभ कर दिया। उसका अभ्यास-उसका नैपुण्य अन्तत: चकित कर गया एक दिन आखेट के लिए वन में निकले आचार्य द्रोण के सर्वश्रेष्ठ शिष्य अर्जुन को भी। अर्जुन की ईर्ष्या से प्रेरित आचार्य एकलव्य के पास पहुंचे। जिनकी मूर्ति पूजता था एकलव्य, वे जब स्वयं उसके यहां पधारे। गुरुदक्षिणा में उन्होंने उसके दाहिने हाथ का अंगूठा मांगा। किस लालसा से एकलव्य ने शास्त्राभ्यास किया था, उस समस्त अभिलाषा पर पानी फिर रहा था, किंतु धन्य है एकलव्य! उसने बिना हिचके अंगूठा काटा और बढ़ा दिया आचार्य द्रोण के सम्मुख।
आरुणि
न पुस्तकें, न फीस-छात्रावास-शुल्क भी नहीं। उन दिनों छात्र गुरुगृह में रहते थे। निवास, भोजन, वस्त्र तथा अध्ययन का सारा दायित्व गुरुदेव पर। शिष्य सनाथ था गुरु सेवा करके। तीव्र वर्षा देखकर महर्षि धौम्य ने अपने शिष्य आरुणि को धान के खेत की मेंड़ ठीक करने के लिए भेजा। खेत की मेंड़ एक स्थान पर टूटी थी और जल का वेग बांधने के लिए रखी मिट्टी को बहा ले जाता था। निष्फल लौट जाए आरुणि-यह कैसे संभव था? वह स्वयं टूटी मेंड़ के स्थान पर लेट गया जल का वेग रोक कर। शरीर शीतल हुआ, अकड़ा, वेदना का पार नहीं, किंतु आरुणि उठ जाए और गुरुदेव के खेत का जल बह जाने दे-यह नहीं हुआ। गुरुदेव के यहां रात्रि में भी आरुणि नहीं पहुंचा तो वह चिंतित हुए। ढूंढने निकले और उनकी पुकार पर आरुणि उठा। उसकी गुरुभक्ति से प्रसन्न गुरु के आशीर्वाद ने उसी दिन उसे महर्षि उद्दालक बना दिया।
उपमन्यु
महर्षि आयोद धौम्य ने अपने दूसरे शिष्य उपमन्यु का आहार रोक दिया। उसकी लाई हुई सारी भिक्षा वे रख लेते। उसे दूसरी बार भिक्षा लाने से भी रोक दिया गया। वह गौओं का दूध पीने लगा तो वह भी वर्जित और बछड़ों के मुख से गिरे फेन पर रहने लगा तो वह भी निषिद्ध हो गया। भूख से पीड़ित होकर आक के पत्ते खा लिए उसने। उसकी नेत्र ज्योति चली गई। वह कुएं में- जलरहित कूप में गिर पड़ा। महर्षि उसे ढूंढते हुए कूप पर पहुंचे। उनके आदेश से उपमन्यु ने स्तुति की और देववैद्य अश्विनी कुमार प्रकट हुए। उनका आग्रह, किंतु गुरु को निवेदित किए बिना उनका दिया मालपुआ उपमन्यु कैसे खा ले। देववैद्य एवं गुरुदेव दोनों द्रवित हो उठे। उपमन्यु की दृष्टि ही नहीं, तत्काल समस्त विद्याएं प्राप्त हो गईं उसे।
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