वरुण जल के देवता के रूप में पूजे जाते हैं। सृष्टि के आधे से ज्यादा हिस्से पर इन्हीं का अधिकार है। पंच तत्वों में भी जल का महत्व सर्वाधिक है। प्राचीन काल से ही सिद्ध महापुरुष वरुण हुआ है। जल के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए इनकी पूजा देवता के रूप में की जाती है। प्राचीन वैदिक धर्म में वरुण देव का स्थान बहुत महत्वपूर्ण था पर वेदों से उनका रूप इतना अमूर्त है कि उसका प्राकृतिक चित्रण मुश्किल है। इंद्र को महान योद्धा के रूप में जाना जाता है तो वरुण को नैतिक शक्ति का महान पोषक माना गया है।
वरुण से संबंधित प्रार्थनाओं में भक्ति भावना की पराकाष्ठा दिखाई देती है। उदाहरण के लिए ऋग्वेद के सातवें मंडल में वरुण के लिए सुंदर प्रार्थना गीत मिलते हैं। उनके पास जादुई शक्ति मानी जाती थी, जिसका नाम था माया। वरुण देवताओं के देवता हैं। देवताओं के तीन वर्गों (पृथ्वी,वायु और आकाश) में वरुण का सर्वोच्च स्थान है। देवताओं में तीसरा स्थान ‘वरुण’ का माना जाता है जो समुद्र के देवता, विश्व के नियामक और शसक सत्य के प्रतीक, ऋतु परिवर्तन एवं दिन रात के कर्ता-धर्ता, आकाश, पृथ्वी एवं सूर्य के निर्माता के रूप में जाने जाते हैं। ऋग्वेद का 7वां मंडल वरुण देवता को समर्पित है। कहते हैं कि किसी भी रूप में उनका दुरुपयोग सही नहीं है। वह क्रोधित हो जाएं तो दंड के रूप में लोगों को जलोदर रोग देते हैं।
वरुण के पुत्र पुष्कर इनके दक्षिण भाग में सदा उपस्थित रहते हैं। अनावृष्टि के समय भगवान वरुण की उपासना प्राचीन काल से होती आई है। एक बार महर्षि दुर्वासा को वरुण ने भोजन के लिए बुलाया। दुर्वासा एक बार में बहुत खा लेते थे। फिर महीनों नहीं खाते। वरुण देव का पुत्र वारुणी भी वहीं बैठा था। दुर्वासा को खाते देख उसे हंसी आ गई। दुर्वासा महर्षि क्रोधी तो हैं ही, दुर्वासा ने वारुणी को शाप दे दिया, जा तू ऐसा हाथी हो जिसका पेट हाथी का और मुंह बकरी का होगा। वारुणी वैसे ही हाथी हो गया। ऐसे हाथी का पेट कैसे भरे जिसका मुख बकरी का हो। अंत में श्री रामेश्वर के पास मदुरै की तरफ जाकर तपस्या की तथा भगवती ने प्रसन्न होकर उसे उस योनि से मुक्त किया।