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कबीर अमृतवाणी: लाईफ को देगी नया टर्न


गुरु महिमा गावत सदा, मन राखे अति मोद। सो भव फिर आवै नहीं, बैठे प्रभु की गोद।।

गुरु महिमा का कीर्तन करते हुए, सदैव उनके आदेशों का पालन करते हुए, जो मन में अति प्रसन्न रहते हैं, फिर उनका इस संसार में आना नहीं होता। सांसारिक प्रवृत्तियों से निवृत्त होकर वे अपने सत्स्वरूप को पा लेते हैं। उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है।

कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय।
जन्म-जन्म का मोरचा, पल में डारे धोय॥

अज्ञान दशा में, कुबुद्धि के कीचड़ से, शिष्य भरा होता है और गुरु पवित्र ज्ञान रूपी जल के समान होते हैं। शिष्य के जन्म-जन्मांतरों के विकारों को गुरु क्षण भर में नष्ट कर देते हैं, अर्थात शिष्य को सद्बुद्धि देकर उसका जीवन उज्जवल कर देते हैं।

गुरु शरणागत छाडि़ के, करै भरोसा और।
सुख सम्पत्ति को कह चली, नहीं नरक में ठौर॥

गुरु की परम पावन शरण को छोड़ कर जो मनुष्य अन्य स्थान पर भरोसा करे, अर्थात इधर-उधर की आशा लिए डोलता फिरे, उसके सुख की, सम्पत्ति की बात तो क्या, उसे तो नरक में भी स्थान नहीं मिलेगा। उसे कहीं भी चैन नहीं मिल सकता।

गुरु सों प्रीति निबाहिए, जेहि तत निबहै संत।
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कंत॥

जैसे भी हो, किसी भी प्रकार से गुरु से प्रीति निबाहनी चहिए। अपनी निष्काम सेवा, पूजा आदि से संत-गुरुओं को प्रसन्न करना चाहिए। प्रेम बिना तो वे दूर ही हैं परंतु प्रेम के द्वारा गुरु महाराज स्वामी अपने पास ही हैं।

ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास।
गुरु सेवा ते पाइए, सद्गुरु चरण निवास।

संत-महात्माओं के सत्संग में एक-दूसरे के प्रेम का प्रत्यक्ष सुख प्राप्त होता है। सभी प्राणियों के प्रति दया-भाव, अपने ईष्ट की परम पावनी भक्ति तथा सब संदेहों का निवारण होकर, अटल विश्वास की प्राप्ति होती है। गुरु महाराज की निष्काम सेवा से उनके श्री चरणों में शरण पाकर इन सबकी प्राप्ति होती है।

गुरु सेवा जन बंदगी, हरि सुमिरन वैराग।
ये चारों तवहीं मिले, पूरन होवे भाग॥

सम्पूर्ण रूप से गुरु महाराज की सेवा, साधुजनों की बंदगी, शुद्ध आत्म चिंतन तथा सांसारिक विषय भोगों से वैराग्य (अनासक्ति), ये चारों जीवन कल्याण के साधन तो तब ही प्राप्त होते हैं, जब अपने पुण्य पुरुषार्थ के सत्कर्मों का सूर्योदय होता है।

गुरु मूरति आगे खड़ी, दुतिया भेद कछु नाहिं।
उन्हीं कूं परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाहिं॥

साकार रूप में गुरु की प्रतिमा सामने खड़ी है। इसमें दूसरा भेद कुछ भी नहीं है, अत: कोई संदेह न करो। गुरु महाराज की सेवा पूजा कर, प्रणाम करो, तो सारा अज्ञान रूपी अंधकार मिट जाएगा।

लच्छ कोस जो गुरु बसै, दीजै सुरति पठाय।
शब्द तुरी असवार है, छिन आवै छिन जाय॥

चाहे गुरु लाख कोस ही दूर क्यों न हों अर्थात कितनी भी दूर क्यों न हों तो भी अपने मन को उनके श्री चरणों में ही लगाए रखो। उनके सदुपदेश-रूपी घोड़े पर सवार होकर क्षण-क्षण में आते-जाते रहना चाहिए। इस प्रकार गुरु का सामीप्य सदैव ही अनुभव होता रहेगा।

गुरु को सिर पर राखिये, चलिए आज्ञा माहिं।
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोक भय नाहिं॥

गुरु को अपने सिर का ताज समझ कर सदैव उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए। गुरु के प्रति जिसमें ऐसी परम श्रद्धा एवं अटल विश्वास होता है उसका शीश गुरु के सम्मान में झुका रहा है। कबीर जी कहते हैं कि समर्थ गुरु के प्रदान किए गए ज्ञान बल से ऐसा दास सदा निर्भय रहता है।

गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट।
अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥

गुरु, कुम्हार और शिष्य घड़े के समान हैं। जिस प्रकार कुम्हार अपने घड़े का दोष दूर करने के लिए भीतर हाथ का सहारा देकर ऊपर से चोट मारता है उसी प्रकार गुरु अपने शिष्य को बाहर से कठोर अनुशासन की चोट लगाकर अंदर में प्रेम भरते हुए शिष्य की बुराइयों को दूर कर देते हैं।

गुरु मूरति गति चंद्रमा, सेवक नैन चकोर।
आठ पहर निरखत रहे, गुरु मूरति की ओर॥

गुरु की पावन प्रतिमा तो चंद्रमा के समान है और सेवक-शिष्य के नेत्र चकोर के समान हैं। जिस प्रकार चकोर चंद्रमा को निहारता रहता है, उसी प्रकार आठों पहर सेवक को भी गुरु का ध्यान करना चाहिए।