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तापमान में 2°C की बढ़त का इंतजार नहीं करेगी Global Warming, 40% आबादी पहले ही खतरे में

जलवायु परिवर्तन के कारण हमारी धरती गर्म होती जा रही है जिसका असर बर्फ के पिघलने और महासागरों में हो रहे बदलाव की शक्ल में देखा जा सकता है। एक नई रिसर्च में दावा किया गया है कि इसका असर दुनियाभर की 40% आबादी पर हो सकता है। चिंताजनक बात यह है कि ये बदलाव कम तापमान पर भी देखे जा सकते हैं जबकि पहले के आकलन में तापमान ज्यादा होने पर खतरा पैदा होने की आशंका थी।
तो नहीं सुधरेंगे हालात : वैज्ञानिकों ने क्लाइमेट मॉडल के 30 लाख कंप्यूटर सिम्यूलेशन तैयार किए, इनमें से करीब एक तिहाई में डॉमिनो इफेक्ट देखे गए जब तापमान में बढ़त औद्योगिक स्तर की तुलना में 2 डिग्री सेल्सियस से कम थी। पेरिस समझौते में इतनी बढ़त को अधिकतम माना गया है। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन इस हद तक जाने से हालात का फिर सुधरना मुमकिन नहीं होगा।
दुनियाभर में 3 अरब से ज्यादा लोग महासागरों पर जीविका के लिए निर्भर हैं। बावजूद इसके इनके ऊपर पड़ते असर को एक सीमित आबादी के लिहाज से गंभीर समझा जाता है। महासागरों से दूर रहने वालों को लगता है कि वहां से उपजी कोई भी समस्या उनसे काफी दूर है और वे सुरक्षित रहेंगे। अमेरिका की National Oceanic and Atmospheric Administration की Geophysical Fluid Dynamics Laboratory (GFDL) में प्रॉजेक्ट साइंटिस्ट डॉ. हिरोयुकी मुराकमी ने नवभारत टाइम्स ऑनलाइन से बातचीत में बताया है कि नई स्टडीज में पाया गया है कि ट्रॉपिकल साइक्लोन ज्यादा लंबे वक्त तक जमीन पर रह सकते हैं और गर्म तापमान में जमीनी भाग पर और ज्यादा दूर तक जा सकते हैं। इससे संकेत मिलता है कि जमीनी भाग में रहने वाले लोगों पर तूफान से जुड़ा नुकसान होने का ज्यादा खतरा रहता है। महासागरों के गर्म होने से ज्यादा तेज मूसलाधार बारिश भी बार-बार हो सकती है। इसलिए महासागर से दूर रहने वालों को खुद को सुरक्षित समझना ठीक नहीं है। (तस्वीर: बायें डॉ. हिरोयुकी मुराकमी, क्रेडिट मारिया सेट्जर; दायें NOAA)
डॉ. मुराकमी के मुताबिक ऑब्जर्वेशन्स से कन्फर्म किया गया है कि महासागरों की सतह का औसतन तापमान लगातार बढ़ रहा है, खासकर 20वीं सदी के बाद से। एक चिंता यह है कि बढ़ता तापमान दुनिया में हर जगह एक जैसा नहीं है। कुछ जगहें दूसरी जगहों से ज्यादा गर्म हैं। ये अलग-अलग तापमान होने की वजह से ऐसे सर्कुलेशन होते हैं जो ग्लोबल ट्रॉपिकल साइक्लोन ऐक्टिविटी पर असर डालता है। हिंद महासागर ऐसा है जहां 1980 के बाद से काफी ज्यादा गर्मी देखी गई है। हमने हिंद महासागर में, खासकर अरब सागर में 1980 के बाद से ज्यादा संख्या में तीव्र चक्रवात देखे हैं। हमारी क्लाइमेट मॉडलिंग स्टडी के आधार पर पाया गया है कि इंसानी गतिविधियों के कारण ये गर्मी हो रही है। पिछले 50 साल में धरती पर जो वॉर्मिंग हुई है उसमें से 90 प्रतिशत महासागरों में हुआ है।
गर्म पानी के ऊपर चक्रवात तीव्र हो जाते हैं। अरब सागर में आमतौर पर समुद्र की सतह का तापमान 28 डिग्री सेल्सियस से कम रहता है और 1891 से 2000 के बीच सिर्फ 93 चक्रवात रिकॉर्ड किए गए। वहीं, बंगाल की खाड़ी में तापमान हमेशा 28 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा रहता है और इतने ही समय में यहां 350 चक्रवात आए। साल 2001 और 2021 के बीच अरब सागर में 28 चक्रवात आए और तूफानों की तीव्रता भी तेज हो गई। यह बढ़ते समुद्री तापमान का नतीजा था जो 31 डिग्री सेल्सियस तक जाता था। साल 2016 में नेचर में छपी एक स्टडी पाया गया था कि इंसानी गतिविधियों के कारण होने वाली ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से अरब सागर में गंभीर तूफानों की संख्या बढ़ी है।
वहीं, ग्लोबल वॉर्मिंग से बर्फ पिघलने के कारण समुद्रस्तर बढ़ने से शहरों के डूबने का खतरा भी पैदा हो गया है। न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2050 तक भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई पानी के नीचे समा सकती है। (तस्वीर: NASA Earth Observatory)
हवा के मुकाबले पानी का तापमान बदलने के लिए उसके तापमान में ज्यादा बढ़त या गिरावट होनी चाहिए। यह काफी मुश्किल और लंबे समय में होने वाली प्रक्रिया होती है। इस कारण थोड़ा सा भी बदलाव होने पर पानी में रहने वाले जीव उसे झेल नहीं पाते और बुरी तरह प्रभावित होते हैं। महासागर कार्बनडाइऑक्साइड के लिए सिंक का काम करते हैं। ये इस गैस को सोखते हैं और वायुमंडल को साफ करते हैं। इस प्रक्रिया में पानी का pH कम होता है लेकिन प्राकृतिक सीमा से ज्यादा ऐसिडिफिकेशन का बुरा असर पड़ सकता है। प्रदूषक तत्वों के पानी में मिलने से भी pH कम होता है।
डॉ. मुराकमी बताते हैं कि वैज्ञानिक इस बात पर सहमत हैं कि ग्रीन हाउस गैसें ग्लोबल वॉर्मिंग का मुख्य कारण हैं। हमें जल्द से जल्द ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करना होगा। नेताओं, समस्या के सभी पक्षों और वैज्ञानिकों को इस समस्या को सुलझाने के लिए मिलकर काम करना होगा। यह किसी एक देश की समस्या नहीं हैं। अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों को इसमें शामिल होना होगा। हाल ही में की गईं स्टडीज में पाया गया है कि 1971 से 2010 के बीच क्लाइमेट सिस्टम में जमा ताप में बढ़ोतरी का 63 प्रतिशत महासागरों के ऊपरी हिस्से में हुई गर्मी के कारण रहा। वहीं 700 मीटर नीचे गरमाहट से 30% ज्यादा गर्मी हुई।
प्राकृतिक और मानव-निर्मित प्रदूषक तत्व आखिर में महासागरों में ही जा मिलते हैं। नदियों का पानी समुद्र के रास्ते वहां तक पहुंचता है। इनमें सीवर से लेकर नैविगेशन डिस्चार्ज ऑइल, ग्रीज, डिटर्जेंट, कचरा, यहां तक की रेडियोऐक्टिव कचरा भी होता है। सबसे ज्यादा खतरा तेल फैलने से होता है। इसकी वजह से पानी में ऑक्सिजन का स्तर कम होता है और आग लगने का खतरा भी बढ़ता है। इससे पानी के जीवों को खतरा पहुंचता है।
यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि मरी हुई मछलियां गहरे पानी तक मरकरी यानी पारा लेकर जाती हैं। समुद्र में पारे का मिलना बेहद खतरनाक संकेत दिखाता है। ये एक न्यूरोटॉक्सिन होता है यानी दिमाग पर असर करता है। रिसर्च के मुताबिक कोयले पर निर्भर बिजली संयंत्र, सीमेंट फैक्टरी, इनसिनरेटर, खदानों और दूसरे ऐसे कल-कारखानों से ये जहर बारिश और धूल के जरिए नदियों के जरिए समंदर तक पहुंचता है। सूक्ष्मजीवी इसे और ज्यादा जहरीले मेथिलमरकरी (methylmercury) में तब्दील करते हैं। यह मछलियों और दूसरे सीफूड के जरिए इंसानों और वन्यजीवों के तंत्रिका तंत्र (nervous system), प्रतिरक्षा प्रणाली (immunity system) और पाचक तंत्र (digestive system) को भारी खतरा पहुंचा सकता है। डॉ. राम करन का कहना है कि भारत और दूसरे दक्षिण एशियाई देशों को कोयले पर आधारित ऊर्जा संयंत्रों में पारे के उत्सर्जन को सीमित करना चाहिए। (तस्वीर: NOAA Office of Ocean Exploration and Research)
महासागरों पर पड़ने वाला असर ग्लोबल वॉर्मिंग का ही एक नतीजा है। डॉ. मुराकमी के मुताबिक, ‘हम छोटी-छोटी चीजों से शुरू कर सकते हैं जैसे कंप्यूटर और ऐसी बंद करना। क्लीन और सतत ऊर्जा का इस्तेमाल धरती को खतरे से बचाने के लिए जरूरी है।’ आम लोगों को यह समझना होगा कि हमारा एक-एक कदम सिर्फ हमारे आसपास ही नहीं, दुनिया के दूर-दराज कोनों पर भी असर डालता है। इससे न सिर्फ उन इलाकों में रहने वाले लोगों के सिर पर संकट खड़ा हो जाता है बल्कि घूम-फिरकर हमारे जीवन को भी मुश्किल करता है। महासागरों से अरबों साल पहले जीवन विकसित भी हुआ और अभी भी इनके सहारे चल रहा है। इन्हें बचाया जाना इस वक्त की एक बड़ी चुनौती है। (फोटो: NOAA)
दिखेगा एक के बाद एक असर : इसकी वजह से धरती पर जीवन का आधार बने सिस्टम बिगड़ सकते हैं। कंप्यूटर पर धरती की जलवायु का सिम्यूलेशन बनाने के लिए रिसर्चर्स ने मॉडल तैयार किए थे जिन पर क्लाइमेट सिस्टम के डॉमिनो का असर देखा गया था। इनमें से कुछ बर्फ की परतें, महासागरों के करंट और एल नीनो जैसे मौसम के पैटर्न हैं। नई स्टडी में पाया गया कि ढहतीं बर्फ की परतों से चेन रिएक्शन में बदलाव पैदा हो सकते हैं।
नैशनल जियोग्राफिक के मुताबिक यह महासागर अंटार्कटिका के तट से 60 डिग्री दक्षिण की ओर है और दूसरे देशों से किसी महाद्वीप नहीं बल्कि अपने करंट की वजह से अलग होता है। इसके अंदर आने वाले इलाका अमेरिका से दोगुना है। सोसायटी आमतौर पर इंटरनैशनल हाइड्रोग्राफिक ऑर्गनाइजेशन के नामों को मानती है जिसने 1937 की गाइडलाइन्स में दक्षिणी महासागर को अलग माना था लेकिन 1953 में इसे बाहर कर दिया। इसके बावजूद अमेरिका के जियोग्राफिक नेम्स बोर्ड ने 1999 से दक्षिणी महासागर नाम का इस्तेमाल किया है। फरवरी में National Oceanic and Atmospheric Administration ने इसे मान लिया। (फोटो: British Antarctic Survey Reuters)
यह कदम कई मायने में खास है। नैशनल जियोग्राफिक एक्सप्लोरर एनरिक साला ने बताया है कि दक्षिणी महासगर में बेहद अनोखे और नाजुक जलीय ईकोसिस्टम पाए जाते हैं जहां वेल, पेंग्विन्स और सील्स जैसे जीव रहते हैं। ऐसी हजारों प्रजातियां हैं जो सिर्फ यहीं रहती हैं, और कहीं नहीं पाई जातीं। इस क्षेत्र में मछली पकड़ने की गतिविधियों का काफी असर पड़ा है। ऐसे में संरक्षण की जरूरत के चलते भी इसे अलग से मान्यता देना अहम हो जाता है। इसके अलावा जलवायु परिवर्तन का असर भी पड़ रहा है। पिछले महीने दुनिया का सबसे बड़ा हिमखंड अंटार्कटिका से अलग हो गया। फरवरी में भी एक विशाल हिमखंड टूट गया था। (Reuters)
एक खास अंटार्कटिक सर्कमपोलर करंट भारी मात्रा में पानी ट्रांसपोर्ट करता है और दुनियाभर में ऐसे सर्कुलेशन सिस्टम को चलाता है जो धरती पर गर्मी ट्रांसपोर्ट करता है। नैशनल जियोग्राफिक 1915 से मैप तैयार कर रहा है और इसके करंट के आधार पर कार्टोग्राफर्स ने यह फैसला किया है। वर्ल्ड वाइड फंड के मुताबिक यह महासागर सबसे हाल में बना महासागर हुआ। यह 3 करोड़ साल पहले बना था जब अंटार्कटिका और दक्षिण अमेरिका एक-दूसर से अलग हुए थे। टेट का कहना है कि इस महासागर के बारे में लोगों को अलग से बताया-पढ़ाया नहीं गया तो इसकी जरूरतों, अहमियत और खतरों को समझा नहीं जा सकेगा। (Alexandre Milighini/REUTERS)
समुद्र स्तर के बढ़ने से खतरा : एक के नतीजे में पाया गया ग्लेशियर पिघलने से अटलांटिक करंट धीमा हो गया जिससे एल-नीनो पर असर पड़ा और ऐमजॉन वर्षावनों में बारिश कम हो गई और वर्षावन सवाना में तब्दील हो गए। दूसरे सिम्यूलेशन में पाया गया कि ग्रीनलैंड की बर्फ की शीट के पिघलने से महासागर में ताजा पानी मिल गया जिससे अटलांटिक महासागर का करंट धीमा हो गया और उत्तरी ध्रुव से गर्मी पहुंचने लगी। इससे दक्षिणी महासागर का तापमान बढ़ने लगा और अंटार्कटिक बर्फ की शीटें अस्थिर होने लगीं जिससे पानी महासागरों में मिलने लगा और समुद्र का स्तर बढ़ गया।
आधी आबादी होगी मुश्किल में : ज्यादातर में जलवायु परिवर्तन का असर तटीय इलाकों में देखा गया जहां 2.4 अरब या दुनिया की करीब 40% आबादी रहती है। स्टडी के सह-लेखक जोनाथन डॉन्जेस का कहना है कि अगर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम नहीं हुआ तो सदी के आखिर तक तापमान में बढ़त 3 डिग्री सेल्सियस भी पार सकती है जबकि ये नतीजे 1 डिग्री बढ़त के बाद से ही दिखने लगेंगे। ज्यादा तापमान बढ़ने से ज्यादा और गंभीर नुकसान होगा।