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महाभारत के  बड़े धोखे, कृष्ण के अलावा कोई नहीं कर सकता ऐसा


महाभारत के 5 बड़े धोखे : महाभारत के क‍िस्‍से पढ़ें या फ‍िर कन्‍हैया के ग्‍वाल-बाल और कालयवन वध की कहानी। कभी न कभी मन में यह बात जरूर आती है क‍ि भगवान श्रीकृष्‍ण ने इनके साथ धोखा क‍िया। लेक‍िन क्‍या आपने कभी सोचा है क‍ि अधर्म के मार्ग पर चल रहे इन पाप‍ियों का यद‍ि अंत न होता तो उस समय के समाज की तस्‍वीर कैसी होती? आने वाला समय कैसा होता? आने वाली पीढ़‍ियों को धर्म-अधर्म को भेद कैसे पता होता और एक स्‍वस्‍थ समाज की कल्‍पना कैसे साकार होती है? ऐसे ही तमाम सवाल के जवाब श्रीमद्भगवद्गीता में मौजूद हैं। जो आज के युग में भी उतने ही सार्थक हैं ज‍ितने सद‍ियों पहले कहे गए थे। तो आइए श्रीकृष्‍ण के इन 5 बड़े धोखों की कहानी व‍िस्‍तार से जानते हैं, ज‍िन्‍हें उनके स‍िवा कोई और कर ही नहीं सकता था….
जब बर्बरीक के साथ हुआ धोखा : कथा मिलती है कि जब महाभारत का युद्ध आरंभ होने वाला था तो भीम के पौत्र और घटोत्‍कच के पुत्र बर्बरीक ने अपनी मां को यह वचन दिया कि जो भी कमजोर पक्ष होगा वह उनकी ओर से ही युद्ध में प्रतिभाग करेंगे। इसके लिए उन्‍होंने भोलेनाथ की आराधना की और तीन अजेय बाणों को प्राप्‍त किया। उधर श्रीकृष्‍ण को इस बात का पता चला तो ब्राह्मण वेष में बर्बरीक के पास पहुंचे और उनका मखौल उड़ाया कि महज तीन बाण के आधार पर वह महाभारत जैसा युद्ध कैसे जीत सकते हैं? तब बर्बरीक ने उन्‍हें अपने बाणों के बारे में बताया। इसपर श्रीकृष्‍ण ने कहा कि यदि उनके बाण अजेय हैं तो वह पीपल के पत्‍तों में छेद करके दिखाएं। बर्बरीक ने बाण चलाया और सभी पत्‍तों में छेद हो गया लेकिन एक पत्‍ता जो श्रीकृष्‍ण के पीछे था वह बाकी रह गया था। तो बाण उनके चरणों के चक्‍कर काटने लगा।
तब श्रीकृष्‍ण ने बर्बरीक से दान में मांगा उसका स‍िर : इसके बाद श्रीकृष्‍ण ने बर्बरीक से दान में उसका सिर मांग लिया। इस दान को सुनते ही वह समझ गया कि यह जो सामने हैं वह ब्राह्मण नहीं हो सकते तो बर्बरीक ने उनसे पूछा वह कौन हैं और श्रीकृष्‍ण ने उन्‍हें सब सच बताकर अपने विराट रूप के दर्शन कराए। इसके बाद बर्बरीक ने अपने सिर का दान तो कर दिया लेकिन महाभारत युद्ध देखने की इच्‍छा जाहिर की। इसपर कृष्‍ण ने बर्बरीक की महाभारत युद्ध को देखने की इच्‍छापूर्ति के लिए उसपर अमृत का छिड़काव करके एक पहाड़ी पर उसका सिर रख दिया ताकि वह पूरा महाभारत का युद्ध देख सके। यह घटना जिस जगह पर हुई वह वर्तमान में हरियाणा के हिसार जिले में है।
कर्ण वध की ऐसी है कथा : महाभारत के अनुसार जब कर्ण और अर्जुन का युद्ध चल रहा था। तब संग्राम में कर्ण ने अपने बाणों से शत्रु-पक्ष के बहुत-से वीरों का संहार कर डाला। सत्रहवें दिन से पहले तक कर्ण का युद्ध अर्जुन के अतिरिक्त सभी पांडवों से हुआ। उसने महाबली भीम सहित पांडवों को एक-एक करके परास्‍त कर द‍िया। लेक‍िन माता कुंती को दिए वचनानुसार उसने किसी भी पांडव की हत्या नहीं की। सत्रहवें दिन के युद्ध में जब कर्ण और अर्जुन आमने-सामने थे। युद्ध में कर्ण द्वारा अर्जुन का सिर धड़ से अलग करने के लिए ‘नागास्त्र’ का प्रयोग किया गया। लेक‍िन श्रीकृष्ण द्वारा सही समय पर रथ को भूमि में थोड़ा-सा धंसा लिया गया, इससे अर्जुन बच गया। इससे ‘नागास्त्र’ अर्जुन के सिर के ठीक ऊपर से उसके मुकुट को छेदता हुआ निकल गया।
तब श्रीकृष्‍ण ने कही अुर्जन से यह बात : नागास्त्र पर उपस्थित अश्वसेना नाग ने कर्ण से निवेदन किया कि वह उस अस्त्र का दोबारा प्रयोग करें ताकि इस बार वह अर्जुन के शरीर को बेधता हुआ निकल जाए। लेक‍िन कर्ण ने माता कुंती को दिए वचन का पालन करते हुए उस अस्त्र के पुनः प्रयोग से इंकार कर दिया। इसके बाद युद्ध चल ही रहा था क‍ि कर्ण के रथ का एक पहिया धरती में धंस गया। वह अपने को दैवीय अस्त्रों के प्रयोग में भी असमर्थ पाता है, जैसा की उसके गुरु परशुराम का शाप था। तब कर्ण अपने रथ के पहिए को निकालने के लिए नीचे उतरा और अर्जुन से निवेदन किया कि वह युद्ध के नियमों का पालन करते हुए कुछ देर के लिए उस पर बाण चलाना बंद कर दे। तब श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कर्ण को कोई अधिकार नहीं है कि वह अब युद्ध नियमों और धर्म की बात करे जबकि स्वयं उसने भी अभिमन्यु के वध के समय किसी भी युद्ध नियम और धर्म का पालन नहीं किया था। उन्होंने अर्जुन से कहा कि अभी कर्ण असहाय है, इसलिए उसका वध करें। तब अर्जुन ने एक दैवीय अस्त्र का उपयोग करते हुए कर्ण का सिर धड़ से अलग कर दिया।
जयद्रथ वध में श्रीकृष्‍ण की माया : सूर्यास्‍त से पहले जयद्रथ को मारने की अर्जुन की प्रतिज्ञा सुनकर जयद्रथ कांपने लगा। तब द्रोणाचार्य ने उसे आश्वासन दिया कि वे ऐसा व्यूह बनाएंगे कि अर्जुन उसे देख ही नहीं पाएगा। वे स्वयं अर्जुन से लड़ते रहेंगे तथा व्यूह के द्वार पर भी स्‍वयं ही रहेंगे। अगले दिन युद्ध शुरू हुआ। अर्जुन को जयद्रथ कहीं द‍िखाई नहीं दे रहे थे। उधर दिन बीतने लगा। धीरे-धीरे अर्जुन की निराशा बढ़ती गई। यह देखकर श्रीकृष्ण बोले पार्थ समय बीत रहा है और कौरव सेना ने जयद्रथ को रक्षा कवच में घेर रखा है। अतः तुम शीघ्रता से कौरव सेना का संहार करते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ो। यह सुनकर अर्जुन आगे बढ़े लेकिन जयद्रथ तक पहुंचना मुश्किल था। सूर्यास्‍त होने वाली थी। तब श्रीकृष्ण ने अपनी माया फैला दी। इसके फलस्वरूप सूर्य बादलों में छिप गया और शाम का भ्रम उत्पन्न हो गया।
तब हंसने लगे दुर्योधन और जयद्रथ : शाम होते देख जयद्रथ और दुर्योधन प्रसन्नता से उछल पड़े। अर्जुन को आत्मदाह करते देखने के लिए जयद्रथ कौरव सेना के आगे आकर अट्टहास करने लगा। तभी जयद्रथ को देखकर श्रीकृष्ण बोले पार्थ तुम्हारा शत्रु तुम्हारे सामने खड़ा है। उठाओ अपना गांडीव और वध कर दो इसका। वह देखो अभी सूर्यास्त नहीं हुआ है। यह कहकर उन्होंने अपनी माया समेट ली। देखते-ही-देखते सूर्य बादलों से निकल आया। सबकी दृष्टि आसमान की ओर उठ गई। सूर्य अभी भी चमक रहा था। तब अर्जुन ने अपना गांडीव उठा लिया और श्रीकृष्‍ण के कहे अनुसार जयद्रथ की गर्दन पर इस तरह वार क‍िया क‍ि उसका स‍िर उत्तर दिशा में सो योजन की दूरी पर तप कर रहे उसके पिता की गोद में जाकर गिरा। जयद्रथ का पिता चौंककर उठा तो उसकी गोद में से सिर जमीन पर गिर गया। सिर के जमीन पर गिरते ही उनके सिर के भी सौ टुकड़े हो गए।
कालयवन वध की भी जानें ऐसी कहानी : पौराण‍िक कथाओं के अनुसार मगध के शासक जरासंध ने मथुरा पर हमला करा दिया। हमले के लिए जरासंध ने शिवजी से अजेय का वरदान प्राप्त कालयवन को भेजा। वरदान के कारण श्रीकृष्ण ने कालयवन को नहीं मारा। कालयवन से भयंकर युद्ध चल रहा था। युद्ध के दौरान वह रण छोड़ कर ललितपुर के धौजरी के पास पर्वत पर स्थित एक गुफा में आकर छुप गए। गुफा में उस समय मुचुकुंद ऋषि तपस्या कर रहे थे। उन्हें वरदान था कि उनकी दृष्टि सबसे पहले जिस पर पड़ेगी वह भस्म हो जाएगा। श्रीकृष्ण ने अपना पहने पीला वस्त्र मुचुकुंद ऋषि के ऊपर डाल दिया और गुफा में ही छिप गए। भगवान कृष्ण का पीछा करते हुए कालयवन गुफा तक आ पहुंचा।
तब ऐसे भस्‍म हो गया कालयवन : कालयवन ने पीले वस्त्र में तपस्या कर रहे मुचुकुंद ऋषि को श्रीकृष्ण समझा और भगवान कृष्ण के धोखे में मुचुकुंद ऋषि को मारना शुरू कर दिया। ऋषि मुचुकुंद ने जैसे ही आंख खोली उनकी दृष्टि हमला कर रहे कालयवन पर पड़ी। इससे वह भस्म हो गया। इस तरह से श्रीकृष्ण ने बिना स्वयं मारे ही कालयवन का वध करा दिया। इस घटना के बाद से युद्ध भूमि छोड़ ललितपुर की इस गुफा में आने के कारण भगवान श्रीकृष्ण का नाम रणछोड़ पड़ गया।
दुर्योधन वध की भी अनोखी कथा : महाभारत का युद्ध अपने अंत की ओर था। युद्ध में सभी कौरव मारे गये थे, केवल दुर्योधन ही अब तक जीवित बचा हुआ था। ऐसे में गांधारी ने अपनी आंखों की पट्टी खोलकर दुर्योधन के शरीर को वज्र का करना चाहा। गांधारी ने भगवान शिव से यह वरदान पाया था कि वह जिस किसी को भी अपने नेत्रों की पट्टी खोलकर नग्नावस्था में देखेगी, उसका शरीर वज्र का हो जायेगा। इसीलिए गांधारी ने दुर्योधन से कहा कि वह गंगा में स्नान करने के पश्चात् उसके सामने नग्न अवस्था में उपस्थित हो।
तब श्रीकृष्‍ण ने कही दुर्योधन से यह बात : महाभारत के अनुसार जब दुर्योधन गंगा स्नान के बाद नग्न अवस्था में गांधारी के समक्ष उपस्थित होने के लिए आ रहा था, तभी मार्ग में श्रीकृष्ण उसे मिल गए। उन्होंने दुर्योधन से कहा इतना बड़ा हो जाने के बाद भी तुम अपनी माता के समक्ष पूर्व नग्न होकर जाओगे। क्या तुम्हें लज्जा नहीं आती। इस पर दुर्योधन ने अपनी जंघा पर पत्ते लपेट लिए और गांधारी के समक्ष उपस्थित हो गया। जब गांधारी ने अपने नेत्रों से पट्टी खोलकर उसे देखा तो उसकी दिव्य दृष्टि जंघा पर नहीं पड़ सकी। इसके चलते दुर्योधन की जंघाएं वज्र की नहीं हो सकीं।
तब कन्‍हैया ने दी यह अनोखी राय : युद्ध के अंत समय में दुर्योधन एक सरोवर में प्रवेश कर गया। उसने कहा कि मेरे पक्ष के लोगों से कह देना कि मैं राज्यहीन हो जाने के कारण सरोवर में प्रवेश कर गया हूं। वह सरोवर में जाकर छिप गया तथा माया से उसका पानी बांध लिया। तभी कृपाचार्य, अश्वत्थामा तथा कृतवर्मा दुर्योधन को ढूंढ़ते हुए उस ओर जा निकले और दुर्योधन को पांडवों से युद्ध करने का आदेश देने लगे। उनका कहना था कि इस प्रकार जल में छिपना कायरता है। तभी पांडव भी वहां पहुंचे उन्‍होंने देख क‍ि सरोवर का जल माया से स्तंभित है और उसके अंदर दुर्योधन भी पूर्ण सुरक्षित है। श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को भी माया का प्रयोग करने का परामर्श दिया। युधिष्ठिर आदि ने दुर्योधन को कायरता के लिए धिक्कारा तथा युद्ध के लिए ललकारा। तब श्रीकृष्‍ण ने कहा क‍ि आप लोगों में से भीम से इतर कोई भी दुर्योधन से गदा-युद्ध करने योग्य नहीं है। तभी दोनों का द्वंद्व युद्ध आरंभ हुआ और भीम के देखने पर श्रीकृष्ण ने अपनी बायीं जांघ को ठोका। भीम संकेत समझ गए और उन्होंने पैंतरा बदलते हुए दुर्योधन की जांघें गदा के प्रहार से तोड़ डालीं।
ग्‍वाल-बाल की यह कथा भी जान लें : कथा म‍िलती है क‍ि एक दिन भगवान श्रीकृष्ण और ग्वाल बाल गाय-बछड़ों को चराने वन में गये। वह सभी ग्‍वाल-बालों के साथ भोजन में व्‍यस्‍त थे क‍ि तभी ब्रह्माजी आकाश में पहले से ही उपस्थित थे। उनके मन में एक शंका उत्‍पन्‍न हुई क‍ि यह वाकई नारायण हैं या कोई और है। यह जानने के ल‍िए उन्‍होंने सभी गाय-बछड़ों को एक गुप्त स्थान पर छिपा दिया। वहीं जब भगवान जल ग्रहण करने यमुना की ओर गए तो ब्रह्माजी ने ग्‍वाल-बालों को छ‍िपा द‍िया। कन्‍हैया जब वापस लौटे तो उन्‍हें दूर-दूर तक न तो ग्‍वाल-बाल द‍िखे न गाय-बछड़े। कुछ ही पल में वह ब्रह्माजी की सारी मंशा जान गए।
तब ब्रह्माजी को हुआ अपनी गलती का अहसास : तब भगवान श्रीकृष्ण ने स्‍वयं ही गाय-बछड़े और ग्‍वाल-बाल के रूप धर ल‍िए और सभी के घर उपस्थित हो गए। यह क्रम कई द‍िनों तक चलता रहा। तब ब्रह्माजी ने सोचा क‍ि ग्‍वाल-बाल और गाय-बछड़े इतने द‍िनों से गायब हैं, इनके पर‍िवारवाले व्‍याकुल नहीं हुए। यह क्‍या है क‍ि अब तक शांत‍ि है। तब ब्रह्माजी ने देखा क‍ि उन्‍होंने ज‍िन ग्‍वाल-बालों और गाय-बछड़ों को छ‍िपाया है वह तो श्रीकृष्‍ण के भी पास हैं। तब उन्‍हें अपनी गलती का अहसास हुआ। वह समझ गए क‍ि कन्‍हैया कोई और नहीं स्‍वयं नारायण ही हैं। तब उन्‍होंने बृज जाकर श्रीकृष्‍ण से क्षमा याचना की। कन्‍हैया ने भी प्रसन्‍न होकर ब्रह्माजी को अपने चतुर्भुज रूप के दर्शन कराए।