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भगवती पार्वती कैसे बनी भगवान शिव की अर्धांगिनी और उन्हें बनाया अर्धनारीश्वर

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भगवती श्री पार्वती भगवान शिव की आदिशक्ति हैं। उन्होंने जहां विनय और प्रेम की प्रतिमूर्ति होकर पति के आधे अंग में स्थान प्राप्त किया और उन्हें अर्धनारीश्वर बनाया, वहीं स्वामी को अपनी विराट शक्ति देकर मृत्युंजय के रूप में प्रतिष्ठित किया। भगवती श्री पार्वती ने अपने दोनों पुत्रों को सेनानी और गणाध्यक्ष बनाया तथा स्वयं भी लोक कल्याण के लिए शस्त्र उठाकर चंड मुंड विनाशिनी चामुंडा बनीं। वेद, उपनिषद, पुराण सभी उनकी अनंत महिमा का गान करते हैं।

भगवती पार्वती अपने पूर्व जन्म में दक्ष प्रजापति की कन्या सती के रूप में अवतीर्ण हुई थीं। उस समय भी उन्हें भगवान शंकर की प्रियतमा होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। दक्ष यज्ञ में अपने पति भगवान शिव के अपमान से क्षुब्ध होकर योगाग्नि में उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया। सती ने देह त्याग करते समय यह संकल्प किया कि, ‘‘मैं पर्वतराज हिमालय के यहां जन्म ग्रहण कर पुन: भगवान शिव की अर्धांगिनी बनूं।’’

भला जगदम्बा का संकल्प कभी अन्यथा हो सकता है। वह समय पाकर हिमालय पत्नी मैना के गर्भ में प्रविष्ट हुईं और यथा समय उनका प्राकट्य हुआ। पर्वतराज की पुत्री होने के कारण वह पार्वती कहलाईं। जब वह कुछ सयानी हुईं तो उनके माता-पिता उनके अनुरूप वर के लिए चिंतित रहने लगे। एक दिन अकस्मात देवर्षि नारद हिमवान के घर पधारे।

पर्वत राज ने उनका बड़ा आदर सत्कार किया। उन्होंने अपनी लाडली पुत्री पार्वती को भी बुलाकर मुनि के चरणों में प्रणाम करवाया तथा उनसे अपनी पुत्री के भविष्य के विषय में कुछ बताने की प्रार्थना की।

नारद जी ने हंस कर कहा, ‘‘गिरिराज! तुम्हारी पुत्री सब गुणों की खान है। आगे चल कर यह उमा, अम्बिका और भवानी आदि नामों से प्रसिद्ध होगी। यह अपने पति को प्राणों से भी अधिक प्यारी होगी तथा इसका सुहाग अचल रहेगा, किन्तु इसको माता-पिता से रहित, उदासीन तथा अलग वेश वाला पति मिलेगा। मैंने वर के जितने दोष बताए हैं मेरे अनुमान से वे सभी शिवजी में हैं। यदि तुम्हारी कन्या भगवान शिव की तपस्या करे और वह प्रसन्न होकर इससे विवाह के लिए तैयार हो जाए तो इसका सभी तरह से कल्याण होगा।’’

देवर्षि नारद के उपदेश को हृदय में धारण कर भगवती पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या करने का निर्णय लिया और माता-पिता के मना करने पर भी हिमालय के सुंदर शिखर पर कठोर तपस्या आरंभ कर दी। उनकी कठोर तपस्या को देखकर बड़े-बड़े ऋषि मुनि भी दंग रह गए। अंत में भगवान आशुतोष का आसन हिला। उन्होंने पहले पार्वती की परीक्षा के लिए सप्तऋषियों को भेजा और पीछे वेश बदल कर स्वयं आए। पार्वती की अविचल निष्ठा को देख कर शिव जी अपने को अधिक देर तक न छिपा सके और असली रूप में उनके सामने प्रकट हो गए।

भगवती पार्वती की इच्छा पूर्ण हुई और उन्हें शिवजी के पाणिग्रहण का वरदान मिला। पार्वती जी तपस्या पूर्ण करके घर लौट आई और माता-पिता को उन्होंने शंकर जी के प्रकट होने तथा वरदान देने का सम्पूर्ण वृत्तांत कह सुनाया। तत्पश्चात शंकर जी ने सप्तऋषियों को विवाह का प्रस्ताव लेकर हिमवान के पास भेजा और इस प्रकार विवाह की शुभ तिथि निश्चित हुई। वर पक्ष की ओर से ब्रह्मा, विष्णु और इंद्रादि देवता बारात लेकर आए। भगवान शंकर और पार्वती का विवाह बड़ी धूमधाम से सम्पन्न हुआ। फिर भगवान शिव के साथ भगवती पार्वती कैलाश आईं। दो अनादि दम्पतियों का पुनर्मिलन हुआ फिर पार्वती जी के द्वितीय पुत्र गणेश उत्पन्न हुए। भगवती पार्वती समस्त पतिव्रताओं में शिरोमणि हैं। भगवती सीता जी इन्हीं की आराधिका थीं।

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