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ससुर से मिले श्राप की मुक्ति के लिए चन्द्रमा आए थे यहां, आज है ज्योतिर्लिंग

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देश की पश्चिम दिशा में अरबी समुद्र के तट पर बने भगवान सोमनाथ महादेव का मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। इस मंदिर का भव्य निर्माण 11 मई 1951 को भारत के प्रथम राष्ट्रपति दिवंगत राजेन्द्र प्रसाद ने करवाया था। पौराणिक कथाअों के अनुसार इस मंदिर को सबसे पहले चन्द्रमा (सोम) ने बनाया था। जिसके कारण इस मंदिर का नाम सोमनाथ मंदिर पड़ा।

श्राप का कारण
धार्मिक ग्रंथों के अनुसार राजा दक्ष ने अपनी 27 पुत्रियों का विवाह चंद्रमा से किया लेकिन वह उनमें से केवल रोहिणी को अत्यधिक स्नेह करते थे। अपनी उपेक्षा होते देख बाकी कन्याअों ने सारी व्यथा अपने पिता दक्ष को बताई। राजा दक्ष के बार-बार समझाने पर भी चंद्रमा ने अपना व्यवहार नहीं सुधारा तो उन्होंने उसे क्षयरोग होने का श्राप दे दिया।

श्राप का निवारण
चंद्रमा के क्षय होने से चारों तरफ हाहाकार मच गया। तब इस श्राप के निवारण के लिए ब्रह्मा जी ने विधिपूर्वक शुभ मृत्युंजय-मंत्र का अनुष्ठान करने को कहा। सोमनाथ के समीप बह रही नदी के किनारे चंद्रदेव ने भगवान महादेव की अर्चना-वंदना और अनुष्ठान प्रारंभ कर दिया। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भोलेनाथ ने वर दिया कि चंद्रमा की कला 15 दिन प्रकाशमय अौर 15 दिन क्षीण हुआ करेगी। उनकी दृढ़ भक्ति को देखकर भगवान शिव साकार लिंग रूप में प्रकट हो गए अौर स्वयं ‘सोमेश्वर’ कहलाने लगे। चंद्रमा के नाम पर सोमनाथ बने भगवान शिव संसार में ‘सोमनाथ’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। यहां पहला सोमनाथ मंदिर चंद्रमा ने ही बनाया था। उसके बाद भगवान श्रीकृष्ण, अन्य राजाअों अौर धर्मप्रेमियों ने अपने-अपने समय में मंदिर का पुन: निर्माण करवाया।

ऐतिहासिक कथाएं
सोमनाथ मंदिर के निर्माण से संबंधित इतिहास में बहुत सी कथाएं हैं। मुस्लिम शासक महमूद गजनी ने मंदिर की भव्यता की अोर आकर्षित होकर सोमनाथ पर पहली बार आक्रमण करके उसे खंडित किया। शिव भक्तों ने मंदिर का पुन:निर्माण करवाया। मुख्य मंदिर के सामने 18वीं सदी में महारानी अहल्याबाई होलकर द्वारा बनाया मंदिर स्थित है।

वर्तमान मंदिर
भारत की आजादी के पश्चात जूनागढ को 9 नवम्बर 1947 को पाकिस्तान से आजादी मिली। उस समय उप प्रधानमंत्री दिवंगत सरदार वल्लभभाई पटेल ने सोमनाथ का दौरा करके समुद्र का जल लेकर नए मंदिर का संकल्प लेकर मंदिर का पुन: निर्माण करवाया।

इस मंदिर का निर्माण व शिल्प कार्य सोमपुरा ब्राह्मण और प्रभाशंकर सोमपुरा ने किया। यह मंदिर पाशुपात संप्रदाय व कैलाश महामेरु प्रसाद शैली द्वारा बनाया गया है। इसके शिखर में 20 मन (करीब 400 किलो) का कलश है। वर्ष 1951 के पश्चात प्रत्येक वर्ष एक करोड़ से अधिक भक्त दर्शनों के लिए आते हैं। प्रतिदिन सुबह 7 बजे, दोपहर 12 बजे और शाम को 7 बजे आरती की जाती है। सावन महीने, महाशिवरात्रि अौर कार्तिक पूर्णिमा को यहां मेला लगता है।