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आप भी भगवान से Help चाहते हैं तो मानें द्रौपदी की ये बात


समस्त दुखों के नाश एवं समस्त लौकिक-पारमार्थिक सम्पत्ति की प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन है भगवान का अनन्य आश्रय लेकर, अनन्य शरण लेकर सच्चे मन से उनका भजन करना और समस्त सुखों के नाश एवं समस्त लौकिक-पारमार्थिक सम्पत्ति के सर्वनाश का साधन है भोगों का अनन्य आश्रय लेकर मन से भगवान को भुला देना। आज हम भगवान को भूल गए हैं और हमारा जीवन केवल भोगों का आश्रयी बन गया है। इसी से इतने दुख संताप और विनाश के पहाड़ हम पर लगातार टूट रहे हैं। जो लोग क्रियाशील और समर्थ हैं, उनको भगवान की प्रसन्नता के लिए भगवान का स्मरण करते हुए समयानुकूल स्वधर्मोचित कर्मों के द्वारा भगवान की पूजा करनी चाहिए और जो अल्प समर्थ या असमर्थ हैं उन्हें आर्त तथा दीन भाव से भगवत्प्रीति के द्वारा धर्म के अभ्युदय और विश्व शांति के लिए अनन्य भाव से भगवान को पुकारना चाहिए।
हमारी अनन्य पुकार कभी व्यर्थ नहीं जाएगी। हममें होना चाहिए द्रौपदी-सा विश्वास, होनी चाहिए गजराज-सी निष्ठा और सबसे बढ़कर हममें होनी चाहिए प्रह्लाद-सी आस्तिकता जिसके वचन को सत्य करने के लिए भगवान नृसिंह रूप में खम्भे में से प्रकट हुए।

विपत्ति, कष्ट, असहाय स्थिति, अमंगल और अन्याय तभी तक हमारे सामने हैं जब तक हम भगवान को विश्वासपूर्वक नहीं पुकारते। हम आज भी द्रौपदी की भांति भगवान को पुकारें तो भगवान कहीं गए नहीं हैं। वे तुरंत किसी भी रूप में प्रकट होकर हमारे सारे दुख हर लें और उसी क्षण से दुख पहुंचाने वालों के विनाश की भी गारंटी मिल जाए।

दुष्ट दु:शासन के हाथों में पड़ी हुई असहाय द्रौपदी ने आर्त होकर मन-ही-मन भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण करते कहा था :
‘‘हे गोविंद! द्वारकावासी सच्चिदानंद प्रेमघन! गोपीजनवल्लभ। सर्वशक्तिमान प्रभो। कौरव मुझे अपमानित कर रहे हैं। क्या यह आपको मालूम नहीं है? हे नाथ! हे रमानाथ! हे ब्रजनाथ! हे जनार्दन! मैं कौरवों के समुद्र में डूबी जा रही हूं। आप मेरा उद्धार कीजिए। हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे महायोगी! हे विश्वात्मा और विश्व के जीवनदाता गोविंद! मैं कौरवों से घिर कर संकट में पड़ गई हूं। आपकी शरण में हूं। आप मेरी रक्षा कीजिए।’’

द्रौपदी की आर्त पुकार सुनकर भक्त वत्सल प्रभु उसी क्षण द्वारका से दौड़े आए और द्रौपदी को वस्त्र दान करके उसकी लाज बचाई पर दुष्ट दुशासन ने द्रौपदी के जिन केशों को खींचा था, वे खुले ही रहे दुशासन को दंड मिलने के दिन तक। द्रौपदी के खुले केश थे। पांडवों के साथ वह वन में रहती थीं। भगवान श्रीकृष्ण पांडवों से मिलने गए।

वहां द्रौपदी ने एकांत में रोकर भगवान श्रीकृष्ण से कहा, ‘‘मैं पांडवों की पत्नी, धृष्टद्युम्न की बहन और तुम्हारी सखी होकर भी कौरवों की सभा में घसीटी जाऊं यह कितने दुख की बात है। भीमसेन और अर्जुन बड़े बलवान होने पर भी मेरी रक्षा नहीं कर सके। इनके जीते जी दुर्योधन क्षण भर के लिए कैसे जीवित है? श्रीकृष्ण! दुष्ट दुशासन ने भरी सभा में मुझ सती की चोटी पकड़कर घसीटा और ये पांडव टुकुर-टुकुर देखते रहे।’’

इतना कह कर द्रौपदी रोने लगीं। उनकी सांस लम्बी-लम्बी चलने लगी और उन्होंने गद्गद होकर आवेश से कहा, ‘‘श्रीकृष्ण! तुम मेरे संबंधी हो मैं अग्निकुंड से उत्पन्न पवित्र रमणी हूं, तुम्हारे साथ मेरा पवित्र प्रेम है और तुम पर मेरा अधिकार है एवं तुम मेरी रक्षा करने में समर्थ भी हो। इसलिए तुम्हें मेरी रक्षा करनी ही होगी।’’
तब श्रीकृष्ण ने रोती हुई द्रौपदी को आश्वासन देकर कहा, ‘‘कल्याणी! तुम जिन पर क्रोधित हुई हो उनकी स्त्रियां भी थोड़े ही दिनों में अर्जुन के भयानक बाणों से कटकर खून से लथपथ हो जमीन पर पड़े हुए अपने पतियों को देखकर तुम्हारी ही भांति रुदन करेंगी। मैं वही काम करूंगा जो पांडवों के अनुकूल होगा। तुम शोक मत करो। मैं तुमसे प्रतिज्ञा करता हूं कि तुम राज-रानी बनोगी। चाहे आकाश फट पड़े, हिमालय के टुकड़े-टुकड़े हो जाएं, पृथ्वी चूर-चूर हो जाए और समुद्र सूख जाए, पर द्रौपदी! मेरी बात कभी असत्य नहीं हो सकती।’’

ये द्रौपदी के दुखों का नाश करने वाले भगवान आज कहीं चले नहीं गए हैं। द्रौपदी की तरह विश्वासपूर्ण हृदय से उन्हें पुकारने वालों की कमी हो गई है। यदि दुखसागर से सहज ही पार उतरना है तो विश्वास करके अनन्य भाव से भगवान को पुकारना चाहिए।

हमारी यह श्रद्धा जिस दिन से घटने लगी, जब से यह प्रार्थना की ध्वनि क्षीण हो गई, तभी से हम पर दुख आने लगे और तभी से हम सन्मार्ग व सुख के पथ से भ्रष्ट हो गए। अब हम फिर श्रद्धा विश्वास के साथ भगवान को पुकारें और देखें कि हमारे दुख दूर होते हैं या नहीं और भगवान की अमृतमयी अनुकंपा से भगवान के दुर्लभ चरणारविंद की प्राप्ति सहज ही होती है या नहीं।