कुछ दिनों पहले मेरे एक मित्र ने मुझसे कहा, “वो तो अच्छा हुआ कि गोडसे ने गांधी को मार दिया, अगर गांधी आज ज़िंदा होता तो मैं मार देता।”
आज के परिप्रेक्ष्य में इस बात के समर्थन में कुछ पाठक भी होंगे, लेकिन सिर्फ समर्थन के लिए ही यह बात लेख के प्रारम्भ में नहीं कही और ना ही गाँधीजी के प्रति किसी भी प्रकार की सहानुभूति या दया उत्पन्न करने की चेष्टा है यह वाक्य। यह वाक्य ना तो नफरत फैलाने के लिए और ना ही किसी राजनीतिक दल की दाल गलाने के लिए मैनें बताया है।
गांधी को दया की ज़रूरत है भी नहीं। बल्कि, अपने मित्र की यह बात सुनकर मुझे विचार आया कि शायद महात्मा गांधी सरीखे व्यक्तियों के लिए ही कहा गया है कि ‘या तो मैं दोस्तों के दिलों में रहता हूँ या फिर दुश्मनों के दिमाग में।‘ अब भला ऐसे व्यक्ति कैसे मर सकते हैं? गांधी जी के प्रति कुछ व्यक्तियों की घृणा के कारण भी गिनाये जाते हैं। खैर, ऐसे राजनीतिक विचारों का उद्भव होता आया है होता रहेगा। आज गांधी जी हैं तो कल कोई और होंगे। मुख्य बात यह भी है कि मेरे मित्र की इस तरह की बातों से हमारी मित्रता पर कोई फर्क नहीं पड़ा और यह हमारी परंपरा है, जिसे श्रीराम ने भी निभाया, गांधी जी ने भी और हम दोनों ने भी।
मेरे मित्र द्वारा कहा गया यह वाक्य उस मानसिकता को दर्शा रहा है जिनके हृदय में ‘जय श्री राम’ का नारा तो बुलंदी पर है लेकिन राम के एक अनुयायी गांधी का तिरस्कार कर रहे हैं। इस लेख में मैं गांधी के राम थे या राम के गांधी थे, इस पर कुछ विचारों को रख उन्हें आज के समय के साथ जोड़ना चाह रहा हूँ।
राम कौन थे?
वैसे तो यह बड़ा अजीब सा प्रश्न है, लेकिन श्री राम के प्रति भक्ति रखने वाले इस प्रश्न का भावार्थ समझ सकते हैं। यहाँ मैं दो महापुरुषों को उद्धृत करना चाहूंगा। नानक देव जी ने कहा है ‘नानक दुखिया सब संसार, ओही सुखिया जो नामाधार।’ इसी तरह की एक बात तुलसीदास जी ने भी कही ‘कलियुग केवल नाम अधारा। सुमिर सुमिर नर उताराहि ही पारा।।‘ केवल इन्हों दो महापुरुषों के शब्दों में ही नहीं बल्कि अन्य कई स्थानों पर यह कहा गया गया है कि नाम जप का बहुत अधिक महत्व है और विशेष तौर पर कलियुग में तो है ही। लेकिन केवल कलियुग में ही नहीं, त्रेता में राम का उलटा ‘मरा’ जप कर रत्नाकर डाकू से महर्षि वाल्मीकि बने। ‘उलटा नाम जपत जग जाना। वाल्मीकि भए ब्रह्मा समाना।’
नाम की बात को ही आगे बढ़ाते हुए, राम कौन हैं इस पर एक श्लोक है। ‘रमंति इति रामः।’ जो रोम-रोम से लेकर समूचे ब्रह्मांडों में रमण करता है – स्थित है – वही राम है। भगवान राम के जन्म के पूर्व से इस नाम का उपयोग ईश्वर के लिए ब्रह्म, परमेश्वर आदि के साथ-साथ होता रहा है। यही श्रीराम का भी महत्व है और राम नाम का भी। पुराणों में दशरथ पुत्र श्रीराम को न केवल विष्णु अवतार बल्कि इसी पुरातन नाम का साकार रूप भी कहा गया है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है ‘राम शब्दो विश्ववचनों, मश्वापीश्वर वाचकः’ अर्थात् ‘रा’ शब्द परिपूर्णता का द्योतक है और ‘म’ परमेश्वर का। श्रीआदि पुराण के अनुसार भी, “राम नाम सदा प्रेम्णा संस्मरामि जगद्गुरूम्। क्षणं न विस्मृतिं याति सत्यं सत्यं वचो मम्।।“ मैं (कृष्ण) सदैव जगद्गुरू राम नाम का प्रेम से स्मरण करता हूँ और एक क्षण के लिए भी यह नाम नहीं भूलता।
राम नाम का वैज्ञानिक महत्व भी है। राम शब्द ‘रा’ अर्थात् रकार और ‘म’ मकार से मिल कर निर्मित हुआ है। ‘रा’ वर्ण सौर ऊर्जा की अग्नि स्वरुप है और पिंगला नाड़ी में स्थित माना गया है। ‘म’ जल तत्व तथा चन्द्र ऊर्जा का कारक है और इड़ा नाड़ी में प्रवाहित होता माना गया है। अनुलोम-विलोम प्राणायाम की तरह ही ‘राम’ शब्द का जाप नाड़ी शोधन करता है – दोनों नाड़ियों में प्रवाहित ऊर्जा में तारतम्य बना कर रखता है। अर्थात न केवल अध्यात्मिक उन्नति बल्कि भौतिक शरीर को भी अच्छा रखने के लिए ‘राम’ नाम का उच्चारण किया जा सकता है। कबीरदासजी ने ‘राम’ शब्द को इस प्रकार कहा है, ‘जग में चारों राम हैं, तीन राम व्योहार। चौथा राम निज सार है, ताका करो विचार।‘ साहित्य में कई बार प्रयोग हुआ शब्द-युग्म ‘अपने राम’ का उद्गम शायद यहीं से हुआ है।
मूल रूप से राम भारतवर्ष की वो पुरातन धरोहर हैं, जिनका प्रत्येक श्वास के साथ स्मरण कर हम हमारी अखंडता को कायम रख सकते हैं और उन विचारों से जुड़ सकते हैं जो हमारे विश्वगुरु के समय थे। तभी तो कृष्ण को प्रभु मानने वाली भक्तिमति मीरां बाई ने भी कहा, “पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।”
राम आज के समय में
बहरहाल, यह तो प्रतीत होता है कि उपरोक्त सभी बातें पुरातन कालों में किये गए अतिविशिष्ट शोध का परिणाम हैं। सामयिक विज्ञान के अनुसार इन पर शोध होना बाकी है। लेकिन फिर भी यदि पुरातन काल के व्यक्ति हमसे अधिक स्वस्थ थे, हम विश्वगुरु थे, अधिक संपन्न थे, सोने की चिड़िया कहलाते थे, अर्थात कहीं न कहीं उस समय की हमारी समझ आज की समझ से बेहतर थी। तब उनके लिखे को आँख मींचकर नज़रअंदाज करना मेरे अनुसार उचित नहीं है। हाँ! आज के समय के अनुसार परिष्करण की आवश्यकता ज़रूर है।
पुरातन ग्रंथों के अनुसार राजा परीक्षित ने कलियुग का अंत करने का विचार इसलिए त्याग दिया था क्योंकि इस युग में ईश्वर को पाने के लिए सालों तपस्या करने की ज़रूरत नहीं है बल्कि विश्वास के साथ नाम जाप ही पर्याप्त है। तुलसीदास जी ने किस सुंदरता से राम नाम का महत्व बताया है, “जिस सागर को बिना सेतु के, लांघ सके न राम। कूद गए हनुमानजी उसी को, लेकर राम का नाम।।”
कबीरदास जी ने अजपा जाप को अधिक महत्व दिया था, जिसमें हम अपनी सांसों के साथ-साथ किसी मन्त्र का जाप करते हैं। राम नाम भी एक मन्त्र ही है। हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार सांस लेते समय ‘रा’ और छोड़ते समय ‘म’ का उच्चारण करते रहने से अजपा जाप होता है।
अतः सर्वप्रथम हम यह मान सकते हैं कि आज के समय में राम नाम लेने से शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक लाभ मिलता ही है। दूसरे यदि हम दशरथ पुत्र श्री राम की बात करें तो उनका जीवन कई कारणों से आज भी अनुकरणीय है। मर्यादा, माता-पिता की आज्ञा पालन, त्याग की भावना, गुरु भक्ति, भाइयों के प्रति प्रेम, शबरी और केवट जैसे उदाहरणों से दलित-सम्मान, अहिल्या को शाप मुक्त कर स्त्री रक्षा, माँ और जन्मभूमि के प्रति सम्मान, शत्रु का भी सम्मान, शत्रु सहित सभी से ज्ञान लेने का धैर्य, टीम वर्क, महल और जंगल – हर परिस्थिति में रहने की क्षमता, शौर्यवान, दृढ़ निश्चयी, रणनीति निर्माता, अच्छे मित्र, हृदय में समा सकने जैसा व्यक्तित्व सरीखे कितने ही ऐसे गुण हैं जो आज के समयानुसार भी सार्थक हैं।
महात्मा गांधी पर राम का प्रभाव
गांधीजी के राजनीति और समाजोत्थान करते जीवन से इतर एक और पक्ष भी है जिसका संबंध राम से है। गांधीजी ने भी हर परिस्थिति में अपने आदर्शो अहिंसा और सत्य को नहीं त्यागा। सत्य के प्रति आग्रह से ही सत्याग्रह उत्पन्न हुआ। चरखे पर सूत कातकर हाथ से बनी शाल पहनी। अपनी माता को दिए वचन का पालन करते हुए उन्होंने सादा भोजन खाया। दलित और महिला उत्थान के लिए विशिष्ट कार्य किये। अंग्रेजों का दृढ़ निश्चयी हो पुरजोर विरोध करते हुए भी उनसे शत्रुता नहीं पाली, बल्कि अहिंसा सरीखी अपनी रणनीति से उन्हें भारत को स्वतंत्र करने की दिशा में उन्मुख किया। आधुनिक भारत के लिए रामराज्य की परिकल्पना भी की।
यंग इंडिया 20.1.1927 में लिखते हुए गांधी ने कहा था कि “मैं जितने धर्मों को जानता हूँ, उनमें सब में हिन्दू धर्म सर्वाधिक सहिष्णु है। मेरा हिन्दू धर्म मुझे सभी धर्मों का सम्मान करना सिखाता है। यह न केवल मनुष्यमात्र की बल्कि प्राणीमात्र की एकता और पवित्रता में विश्वास रखता है।’’ इस वाक्य में भी श्री राम का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। रामराज्य में केवल मनुष्य नहीं बल्कि सुग्रीव, जांबवंत और हनुमान जैसे सभी प्राणी उच्च पदों पर आरूढ़ थे।
रामराज्य की अपनी कल्पना को स्पष्ट करते हुये ‘यंग इंडिया’ में गांधीजी ने लिखा कि “रामराज्य से मेरा अर्थ हिन्दूओं के राज्य से नहीं है। रामराज्य अर्थात- जहां अंत्योदय की प्रकृति राज करती हो। ग्रथों में जिस रामराज्य की चर्चा है वह वास्तविक लोकतंत्र है। न्याय व्यवस्था में राजा और रंक का भेद नहीं हो।“
वे यह भी कहते थे कि, ” मैंने अपने आदर्श समाज को रामराज्य का नाम दिया है। कोई यह समझने की भूल न करे कि राम-राज्य का अर्थ है केवल हिन्दुओं का शासन। मेरा राम खुदा या गॉड का ही दूसरा नाम है। मैं खुदाई राज चाहता हूं जिसका अर्थ है धरती पर परमात्मा का राज्य। सत्य, अहिंसा, मर्यादा-पालन, वीरता, क्षमा, धैर्य आदि गुणों का हममें से हरेक व्यक्ति यदि वह चाहे तो क्या आज ही परिचय नहीं दे सकता?” इसका सीधा अर्थ यही है कि वे राम के उस स्वरुप से परिचित थे जिसके बारे में कई महापुरुषों ने कहा है और इस लेख में पूर्व में उद्धृत भी किया गया है। इसके साथ ही दशरथ पुत्र राम के गुणों को वे भारत के प्रत्येक व्यक्ति में देखना चाहते थे।
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्याप।
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीत।।
अर्थात ‘रामराज्य’ में कहीं भी दैहिक, दैविक और भौतिक परेशानियां नहीं होती. मानवों में आपस में प्रेम होता है तथा नागरिक नीति, मर्यादा और धर्म का पालन करते हैं। अध्यात्म को सामाजिकता के साथ जोड़ने का गांधीजी यह एक अभूतपूर्व कलियुगी प्रयास था, जिसमें गांधी जी बहुत अधिक सफल नहीं हुए लेकिन अपने विचारों को हम सभी के बीच इस तरह छोड़ गए कि हम गांधी को माने न माने लेकिन इन विचारों के साथ रहना ही पड़ेगा क्योंकि यही विचार गांधीजी से पूर्व भी हमारी सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक विरासत हैं। आर्थिक-सामाजिक असमानता, भुखमरी, आदि परेशानियों से निपटने के लिए हमें सबसे पहले आपसे विद्वेष भूल कर एक होना ही पड़ेगा, अन्यथा विदेशी हम पर अपरोक्ष रूप से राज करते ही रहेंगे हमें लूटते ही रहेंगे। यही श्रीराम ने भी किया था वानरों, भालू, मानवों और राक्षस की एक विविध सेना बना कर विजय प्राप्त की।
राम तो हर धर्म के लिए हैं। ब्रह्माण्डों में रमे हुए राम किसी एक धर्म के कैसे हो सकते हैं? गांधी भी उन्हीं राम के उपासक थे। राम नाम को प्रभावोत्पादक मानते गांधी जी इसके जाप को ईश्वर को पुकारना मानते थे। कनक तिवारी अपनी पुस्तक ‘फिर से हिंद स्वराज’ में कहते हैं कि “गांधीजी ने अपने मन, वचन और कर्म से जितनी बार राम और हिंदू शब्द का इस्तेमाल किया उतनी बार तो किसी ने भी नहीं किया होगा। ईश्वर-अल्लाह दोनों को रघुपति राघव राजा राम के साथ जोड़ कर भारतवर्ष की उदार परम्परा की इस धुन को हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक भी बनाया।”
मेरे अनुसार यहाँ कनक तिवारी यह नहीं कह रहे हैं कि गांधी जी से अधिक राम नाम का जाप किसी और ने नहीं किया। वस्तुतः उनके कहने का अभिप्राय यह है कि अपनी हर श्वास के साथ-साथ गांधी जी राम का जाप करते थे। यह एक प्रकार का योग है। राम नाम को सृष्टि की सार्वभौमिक ऊर्जा से जोड़कर उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम को एक बताने की जो कोशिश की वह अद्वितीय है।
कनक तिवारी आगे कहते हैं कि, “गांधी ने राम नाम को शारीरिक, मानसिक और नैतिक व्याधियों से बचने के लिए अचूक औषधि बताया।” और यही तो हमारे धर्म ग्रन्थ भी कहते हैं। यह सन 1947 की बात है जब गांधी जी ने अस्वस्थ होने पर चिकित्सकीय परामर्श हेतु ना कहा और बोले कि, “सच्चे चिकित्सक तो श्रीराम ही हैं।” और उन्होंने राम नाम का उच्चारण कर पूर्ण स्वास्थ्य लाभ को प्राप्त किया।
गाँधी जी अपने अंतिम समय में जब “हे राम” कहते हैं, तो यह शब्द उनके मुख से इसीलिए निकल पाए क्योंकि श्वास-प्रश्वास के साथ कहीं न कहीं वे राम नाम का उच्चारण करते रहते थे।
गांधीजी को मारना शायद आसान था, लेकिन राम जो गांधी जी से भी जुड़े हैं, आपसे भी और मुझसे भी को हम सभी के अंतर से निकालना असंभव है। ईश्वरीय ऊर्जा का यह नाम मेरे मित्र जिन्होंने गांधी जी को मारने का विचार किया और गांधी जी दोनों ही को एक सूत्र में जोड़ देता है, जिसे तोडना असंभव है। जिस तरह श्रीराम के गुण आज भी प्रासंगिक हैं, कलियुग में राम नाम जाप प्रासंगिक है, राम का अनुगमन करते गांधीजी के विचार भी मृत न होकर अपने शुद्ध रूप में जीवित हैं और संभवतया रहेंगे भी।
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मेरा परिचय निम्न हैं:
नाम: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
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