भारतीय सिनेमा के पितामह कहें जाने वाले दादा साहेब की आज पुण्य तिथि है। दादासाहब फालके का पूरा नाम धुंडीराज गोविन्द फालके है और इन्हेंने फ़िल्म निर्माण, निर्देशन, पटकथा लेखन आदि विविध क्षेत्रों में भारतीय सिनेमा को अपना योगदान दिया था।
आजकल तो मोबाइल के कैमरे से एक शॉर्ट फिल्म बन जाती है। लेकिन जरा सोचिए उस जमाने में कैसे फिल्म बनती होगी जब ये सारी सुविधाएं हमारे पास नहीं होती थी। भारत की पहली फिल्म ‘राजा हरिशचंद्र’ थी और इस फिल्म के जनक दादा साहेब फाल्के थे। उस समय लोगो को फिल्म मेकिंग का इतना ज्ञान नहीं था लेकिन उसी जमाने में दादा साहेब फाल्के ने एक फिल्म को जन्म देकर बॉलीवुड में कितना महत्वपूर्ण योगदान दिया होगा।
उन दिनों फिल्म बनाना अपने आप में एक संघर्ष था। दादा साहेब फाल्के के नाती चंद्रशेखर पुसालकर की मानें तो फिल्म राजा हरिशचंद्र की मेकिंग अपने आप में एक संघर्ष था। फिल्म के लिए उनकी पत्नी ने अपने गहने तक बेच दिए थे। वो बताते हैं कि उन दिनों में फिल्म के लिए पूरी कास्ट मिल गई थी लेकिन हीरोइन नहीं मिल रही थी। दादा साहेब ने मुंबई का रेड लाइट एरिया भी छान मारा, वहां पर औरतों ने उनसे पूछा कितने पैसे मिलेंगे। दादा साहेब का जवाब सुनकर औरतों ने कहा कि आप जितना देंगे उतना तो हम एक रात में कमा लेते हैं। एक दिन वो होटल में बैठकर चाय पी रहे थे कि तभी उनकी नज़र वहां पर काम कर रहे एक गोरे और दुबले पतले लड़के पर पड़ी। उस लड़के को देखकर उन्हें फिल्म की हीरोइन के किरदार तारामती की याद आ गई और यहीं उन्हें फिल्म की हीरोइन मिल गई। जिस लड़के को हीरोइन बनाया गया था उस लड़के का नाम सालुके था।
दादा साहेब फाल्के का पूरा नाम धुंडिराज गोविंद फाल्के था। वह नित नए-नए प्रयोग करते थे और एक प्रयोग उन्होंने भारतीय चलचित्र बनाने का किया था। इस फिल्म को बनाने के लिए उन्होंने पांच पाउंड का कैमरा खरीदा फिल्म की शूटिंग दादर के एक स्टूडियो में शुरू कर दी। फिल्म की सभी शूटिंग दिन में होती थी। इस काम में उनकी पत्नी भी उनकी मदद करती किया करती थी।
लगभग छः महीनों की मेहनत के बाद फिल्म बनकर तैयार हुई और फिल्म का नाम था ‘राजा हरिशचंद्र’। फिल्म 21 अप्रैल 1913 को ओलम्पिया सिनेमा हॉल में रिलीज़ की गई थी। फिल्म को सभी ने खूब सराहा। फाल्के साहब का ये प्रयोग सभी को भा गया और हमें पहली बॉलीवुड की फिल्म भी मिल गई। दादा साहेब फाल्के ने इसके बाद दो फिल्मे ‘‘भस्मासुर मोहिनी’’ और ‘‘सावित्री’’ बनाई।
1938 में कोल्हापुर नरेश के आग्रह पर दादासाहब ने अपनी पहली और अंतिम बोलती फिल्म ‘‘गंगावतरण’’ बनाई। साल 1944 में उन्होंने अंतिम बार फिल्म बनाने की इच्छा जाहिर की। दादा साहेब 1944 में अल्ज़ाइमर जैसी घातक बीमारी से भी पीढ़ित थे। फिल्म बनाने की इजाजत उन्हें नहीं मिली और इनकार के उस एक पत्र के बाद दादा साहब फाल्के जीवित नहीं रहे। 16 फरवरी 1944 वहीं दिन है जब पहली फिल्म के जनक दादा साहेब फाल्के इस दुनिया को अलविदा कह गए। फाल्के साहब आज फिल्मी जगत का वो सितारा हैं जिनके नाम से बॉलीवुड का शीर्ष पुरस्कार दिया जाता है।